– RAJASTHAN ME HASTHSHILP या हस्तकला | वो कलाएँ जिसे मशीनों का प्रयोग न कर हाथ से तैयार की जाती है उन्हें हस्तकला कहते हैं। राजस्थान की हस्तशिल्प भारत ही नहीं विश्व प्रसिद्ध भी है इसलिए राजस्थान को हस्तकलाओं का अजायबघर/ खजाना कहा जाता है।
- हस्तकला उद्योग केन्द्र बोरानाडा, जोधपुर में है।
- हस्तकलाओं का तीर्थ जयपुर को कहते हैं।
- राजस्थान की हस्तशिल्प वस्तुओं को राजस्थान लघु उद्योग निगम राजस्थली नाम से विपणन करता है।
- राजस्थान में हस्तकला उद्योग को सर्वाधिक सरंक्षण देने वाला संस्थान राजसीको है जिसकी स्थापना 3 जून, 1961 को जयपुर में की गई थी।
- राजस्थान को सर्वाधिक विदेशी मुद्रा आभूषणों से प्राप्त होती है।
- 1998 की ओद्यौगिक नीति में हस्तकला उद्योग को सर्वाधिक सरंक्षण दिया गया है।
राजस्थान में 3 शिल्पग्राम हैं:- RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- जवाहर कला केन्द्र – जयपुर
- पाव शिल्पग्राम – जोधपुर
- हवाला शिल्पग्राम – उदयपुर
- हस्तशिल्प KAGAJ राष्ट्रीय संस्थान, SANGANER (JAIPUR) ME HAI ।
- राजस्थान में केन्द्र सरकार के सहयोग से जोधपुर में राज्य का प्रथम ‘अरबन हॉट बाजार’ स्थापित किया गया, जिसमें बुनकरों को उनके उत्पाद का सही मूल्य मिल सके।
- बीकानेर, जैसलमेर, चितौड़गढ़, उदयपुर, भीलवाडा, राजसमंद, भरतपुर, दौसा, कोटा, झुंझुनूं में ग्रामीण हॉट बाजार स्थापित किये गये।
पॉटरी कला | POTRY KALA – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- मिट्टी की बनी कलाएँ पॉटरी कलाएँ कहलाती हैं।
- पॉटरी कला का उद्भव दमिश्क (सीरिया) से माना जाता है।
- पॉटरी कला पर्शिया (ईरान) से लाहौर आई तथा लाहौर से आमेर के राजा मानसिंह भारत लाये थे।
1. चिकनी मिट्टी की कला –
अ. ब्ल्यू पॉटरी:- यह जयपुर की प्रसिद्ध है।
नोट:- उतरप्रदेश में बुलंदशहर के खुर्जा गांव में मशीन से बनी ब्लू पॉटरी विश्व प्रसिद्ध है।
- इस कला को कृपालसिंह शेखावत (निधान 2009) ने (महू, सीकर) प्रसिद्ध किया था। जिसे इस कला के लिए पद्म श्री का अवॉर्ड मिला (1974) था। चूड़ामन, कालूराम, अनिल दोराया, गोपाल सिंह आदि प्रमुख कलाकार हैं।
- राम सिंह द्वितीय के समय इस कला का सर्वाधिक विकास हुआ।
- रामसिंह द्वितीय ने चूडामणी कुम्हार व कालूराम को ब्लू पॉटरी सीखने दिल्ली भोला कुम्हार के पास भेजा था। कला सीखने के बाद इन दोनों को महाराजा स्कूल ऑफ आर्टस, जयपुर में नियुक्त किया।
- ब्लू पॉटरी में हरा कांच, क्वार्टज पाउडर, गोंद, सोडियम कार्बोनेट, मुल्तानी मिट्टी, ब्लू डाई का मिश्रण कर 800 डिग्री सेन्टीग्रेड पर पकाया जाता है।
ब. ब्लैक पॉटर:- यह कला कोटा की प्रसिद्ध है। इसमें गुलदस्ते, प्लेट, पुजा सामग्री बनाई जाती है।
2. टैराकोटा मिट्टी की कला –
- यह कला मोलेला (राजसमंद), हरजी गाँव (जालौर) की प्रसिद्ध है।
- इस कला में मिट्टी में गधे का गोबर मिलाकर आदिवासी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। मूर्ति के लिए सोलानाड़ा तालाब की मिट्टी काम में ली जाती है।
- खेमाराम, मोहनलाल राजेन्द्र इस कला के प्रमुख मूर्तिकार हैं।
- मोहनलाल कुम्हार को इस कला के लिए राष्ट्रपति अवार्ड, 2012 में पद्मश्री मिल चुका है।
- सुनहरी टेराकोटा पॉटरी बीकानेर की प्रसिद्ध है जिसमें लाख का काम होता है।
- सफेद व पिंक पॉटरी पोकरण (जैसलमेर) की प्रसिद्ध है।
3. कागजी पॉटरी –
यह थानागाजी, अलवर की प्रसिद्ध है। इस पॉटरी को डबल कट/परतदार पॉटरी भी कहते हैं। इस कला में चीनी मिट्टी के बर्तनों को कागज के समान पतले पत्रें पर पॉटरी का कार्य किया जाता है।
मीनाकारी –
- मीनाकारी में लाल व हरे रंग का प्रयोग होता है।
- मीनाकारी ईरान से लाहौर तथा लाहौर से मिर्जा राजा मानसिंह आमेर लाये।
- मीनाकारी की सबसे बड़ी मंडी, सीतापुरा (जयपुर) में है।
- मीनाकारी की सर्वोत्कष्ट कृतियाँ जयपुर में तैयार होती हैं।
- कागज जैसे पतले पत्थर पर मीनाकारी बीकानेर की प्रसिद्ध है।
- सरदार कुदरत सिंह को मीनाकारी के लिए पदमश्री का अवॉर्ड मिल चुका है। (1968) इन्हें मीनाकारी का जादूगर कहते है।
- हरीसिंह, अमरसिंह, किशनसिंह, श्यामसिंह, गोभासिंह प्रमुख मीनाकार हैं।
- सोने पर – हरी कागज पर सोने का काम थेवा कला कहलाती है, जो प्रतापगढ़ की प्रसिद्ध है। थेवा कला में रंगीन बेल्जियम काँच काम में लिया जाता है।
- सावंत सिंह के समय इस कला का प्रारम्भ हुआ।
- गिरीश कुमार वर्तमान में इस कला के कारीगर हैं।
- इस कला को नाथू जी सोनी ने प्रसिद्ध किया। जिसे इस कला के लिए कई राष्ट्रपति अवॉर्ड मिल चुके हैं।
- महेश सोनी, रामप्रसाद सोनी, रामविलास सोनी, जगदीश सोनी थेवा कला के प्रमुख कारीगर हैं। 2015 में थेवा कला के लिए महेश सोनी को पद्म श्री का अवार्ड दिया गया। राजसोनी परिवार जो प्रतापगढ़ का है, इस कला को गोपनीय रखते है ये परिवार इस कला को केवल पुत्रों को ही सीखाते है बहू-बेटी को नहीं। जिस कारण यह कला केवल क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रह गई।
2. चाँदी पर – चाँदी का काम तारकशी कहलाता है इस कला में चांदी के आभूषण में रंग भरा जाता है यह कला लाहौर से मानसिंह प्रथम (आमेर) लाये थे। तारकसी नाथद्वारा (राजसमंद), रेतवाली (कोटा), जयपुर की प्रसिद्ध है।
- पीतल पर- पीतल का काम कच्ची मीनाकारी या मुरादाबादी काम कहलाता है जो अलवर व जयपुर का प्रसिद्ध है। तांबे पर मीनाकारी भीलवाड़ा की प्रसिद्ध है। पीतल के बर्तनों पर सोने के तारों की सूक्ष्म चित्रकारी मुरादाबादी कला कहलाती है। जान नूर मुहम्मद, अब्दुल रजाक कुरैशी पीतल पर मीनाकारी के लिए प्रसिद्ध है।
- कुन्दन कला/पच्चीकारी- स्वर्ण आभूषणों में कीमती पत्र की जड़ाई कुन्दन कला कहलाती है। यह जयपुर की प्रसिद्ध है
- कोफ्तागिरी- फौलाद की बनी वस्तुओं पर सोने के पतले तारों की जड़ाई कोफ्तागिरी कहलाती है। यह कला दमिश्क से पंजाब तथा पंजाब से राजस्थान में आयी। यह कला जयपुर व अलवर की प्रसिद्ध है।
- तहनिशा- धातु को खोदकर उसमें तार भरना तहनिशा कहलाती है। जैसे:-अंगूठियों में धातु भरना। यह कला उदयपुर व अलवर की प्रसिद्ध है। इस कला के कारीगर तलवार साज या सीगलीगर कहलाते हैं। तलवार, कटार, डिब्बो, हुक्का के हत्थों पर यह कला की जाती है।
- वर्क/बरक/तबक – चाँदी के तारों को हरिण की खाल में डाल कर, कूटकर पतला किया जाता है। जो मिठाईयों पर चिपकाने के काम आता है। इस कार्य को करने वाले पन्नीगर कहलाते हैं। यह कला जयपुर की प्रसिद्ध है।
- रमकड़ा उद्योग – सोप स्टोन (घीया पत्थर) के पाउडर से मूर्तियाँ बनाने की कला रमकड़ा उद्योग कहलाती है। यह कला गलियाकोट (डूंगरपुर) की प्रसिद्ध है।
- मूनव्वती/उस्ता कला – इस कला में ऊँट की खाल पर सुनहरी नक्काशी की जाती है। यह कला बीकानेर की प्रसिद्ध है। हीसामुद्दीन उस्ता कला के प्रमुख चित्रकार हैं, जिन्हें इस कला के लिए (31 मार्च 1986) पदमश्री का अवार्ड मिल चुका है। मुहम्मद हनीफ, कादर बक्श इसके कारीगर हैं। रायसिंह का समय उस्ताकला का स्वर्णकाल था। उस्ताकला को बढ़ावा देने हेतु बीकानेर में कैमल हाईड ट्रेनिंग सेन्टर की स्थापना 15 अगस्त, 1975 को की गई थी। बीकानेर शासक महाराजा अनूपसिंह उस्ता कला के कारीगरों को लाहौर से बीकानेर लाये। इलाही बक्श ने ऊँट की खाल पर बीकानेर शासक महाराजा गंगासिंह का चित्र बनाया।
- मथैरणा कला – इस कला में कपड़े पर सुनहरी नक्काशी की जाती है। यह कला बीकानेर की प्रसिद्ध है। इस कला में ईसर, गणगौर, देवी- देवताओं की भीत्ति चित्र बनाये जाते हैं। मुन्नालाल, चन्दूलाल मथैरणा कला के प्रमुख कारीगर हैं।
राज - बादला – जिंक से बनी बोतल जिसके चारों ओर कपड़े का आवरण चढ़ाया जाता है, ताकि पानी लम्बे समय तक ठंडा रह सके। यह कला जोधपुर की प्रसिद्ध है।
- तुड़िया कला नकली आभूषण बनाने की कला तुड़िया कला कहलाती है जो राजाखेड़ा (धौलपुर) की प्रसिद्ध है।
- जटपट्टी – बकरी के बालों से दरियां बनाई जाती है जो जहाज की कालीन बनाने में काम में ली जाती है। जटपट्टी का कार्य जस्सोल (बाड़मेर) में कुम्हार जाति द्वारा किया जाता है। राजस्थान में निर्मित जटपट्टीयों का यूरोपीयन व अरब देशों में निर्यात किया जाता है।
- जटकतराई कला – ऊँट पालक – पोषक जाति रायका – रैबारी द्वारा ऊँट के शरीर पर उगे बालों को कतरकर शरीर पर कई तरह की आकृति बनाई जाती है जिसे जट कतराई कहते है।
कपड़े की कला – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- कपड़े का काम रंगाई-छपाई कहलाता है।
- रंगाई, छपाई का काम नीलगर, छिपें व रंगरेजों द्वारा किया जाता है। छपाई कला को ब्लॉक की कला भी कहते है।
- कपड़े की रंगाई की कला जीनगीरी कला कहलाती है।
- ठप्पा, भांत व बतकाड़े छपाई के काम आने वाले औजार हैं।
- आजम प्रिंट- यह प्रिंट अकोला, चित्तौड़गढ़ की प्रसिद्ध है। इसमें हरे व लाल, काले रंग का प्रयोग किया जाता है। इस प्रिंट के घाघरे प्रसिद्ध हैं।
- जाजम प्रिंट- यह प्रिंट अकोला चित्तौड़गढ़ की प्रसिद्ध है। इस प्रिंट में सूती मोटे कपड़े की रेजा द्वारा बुनाई की जाती है। यह कपड़ा मांगलिक अवसर पर बिछाने के काम में आता है। लाल व हरे रंग का प्रयोग।
- दाबू प्रिंट – यह अकोला, चित्तौड़गढ़ की प्रसिद्ध है। इस प्रिंट में जिस स्थान पर रंग नहीं चढाना हो, उस स्थान को लेई या लुगदी से दबा देते हैं। प्रिंट में लाल व हरा रंग प्रयोग किया जाता है।
- मोम का दाबू/मेण छपाई, सवाईमाधोपुर की प्रसिद्ध है।
- मिट्टी KA DABU बालोतरा (बाड़मेर) KA प्रसिद्ध HAI ।
- मिट्टी व गोंद का दाबू – अकोला (चितौड़गढ़)
- गेहूं के बीधण का दाबू सांगानेर व बगरु का प्रसिद्ध है।
- सांगानेरी प्रिंट- यह प्रिंट जयपुर की प्रसिद्ध है। इसमें प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। इस कला में नामदेवी छिप्पे मलमल पर कढ़ाई किया जाता है। इस कला को मुन्ना लाल ने प्रसिद्ध किया था। इस प्रिंट में करते हैं। सांगानेरी प्रिंट में दाख की बेल व चौबून्दी काले व लाल रंग का प्रयोग होता है। सांगानेरी प्रिंट का सर्वाधिक विकास सवाई जयसिंह के समय हुआ।
- बगरू प्रिंट – यह कला बेलबूटे की छपाई के लिए प्रशिद्ध है। इस कला में लाल व काला रग प्रयुक्त होता है। बगरु प्रिंट में ठप्पा प्रिंट होती है। रामकिशोर छीपा को 2009 में बगरु प्रिंट के लिए पद्म श्री का अवार्ड मिला।
- अजरक प्रिंट – यह कला बाड़मेर की प्रसिद्ध है। इस प्रिंट में दोनों तरफ छपाई होती है तथा लाल व नीले रंगों का प्रयोग किया जाता है। यह प्रिंट खत्री जाति द्वारा की जाती है। अजरक प्रिंट में ज्यामितिक आकृतियों की अधिकता होती है।
- मलीर प्रिंट – यह बाड़मेर का प्रसिद्ध है। इस कला में कत्थई, काला रंग का प्रयोग किया जाता है।
बंधेज – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- जब कपड़े पर किसी जगह रंग नहीं चढ़ाना होता है। तब कपड़े को बाँध दिया जाता है। जिसे बूँदी बाँधना कहते हैं। बंधेज कला मुल्तान से राजस्थान आई थी। बंधेज का काम चड़वा व बंधारा जाति द्वारा किया जाता है। बंधेज की सबसे बड़ी मंडी जोधपुर में है। बंधेज के लिए तैयब खां को पद्म श्री का अवार्ड दिया गया जो जोधपुर के थे।
- बंधेज का सर्वाधिक काम जयपुर व शेखावाटी में होता है। बंधेज का शिकारगाह अलंकरण बूँदी का प्रसिद्ध है। हाड़ौती बारीक बंधेज के लिए जानी जाती है। सवाईमाधोपुर में कथई रंग पर मोर व ईमली का अलंकरण किया जाता है। बंधेज का सर्वाधिक काम सुजानगढ़ (चूरू) में होता है। शेखावाटी व मारवाड़ का बंधेज सबसे बारीक व प्रसिद्ध है।
- बंधेज के कार्य के लिए सर्वप्रथम कपड़े पर जो अलंकरण दिया जाता है, उसे ‘टीपना’ कहते है। बंधेज का सर्वप्रथम उल्लेख हर्ष चरित में मिलता है जिसकी रचना बाणभट्ट ने की थी ।
- सीकर में फूल भाटी तथा बाग भाटी के बंधेज का काम प्रारम्भ किया जिसमें पान की बेल, पत्ती की बेल, अंगूर की बेल, करेले की बेल, चाँद, मोर, झाड़, छोटा पान, कैरी आदि का अंलकार प्रसिद्ध है। यहाँ के बने बंधेज में पीला-पोमचा, चोपड़ की चुनड़ी बनाई जाती है।
- नागौर में पीला, मोती चूर का पीला, हरा पीला, साफा, पोमचा, लाडु का औढ़ना प्रसिद्ध है। पीला पोमचा व ओढ़नी के लिए चूरु प्रसिद्ध है।
लहरिया – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
जब कपड़े को लहरों में बाँध दिया जाता है तब आड़ी रेखाएँ बन जाती हैं जिसे लहरिया कहते हैं। पंचरंगा लहरिया जयपुर का प्रसिद्ध है। लहरिया तीज पर पहना जाता है। लहरिया के साफे व ओढ़नी होती है। राजाशाही, समुद्रलहर, प्रतापशाही आदि लहरियां के प्रकार है।
मोठड़ा – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
लहरिया की रेखाएँ जब आड़ी काटती है तब मोठड़ा बनता है जिसके साफे प्रसिद्ध हैं। मोठड़ा जोधपुर का प्रसिद्ध है। 2011 में मोठडे को गिनीज बुक में दर्ज किया।
बावरा – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- बँधेज का साफा जब 5 रंगों में रंगा जाता है, जिसे बावरा कहते हैं।
राजशाही साफा – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- केवल एक रंग के साफे पर सफेद बिन्दियाँ बनाई जाती हैं। उसे राजशाही साफा कहते हैं।
धनक – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- जब कपड़े पर बड़ी-बड़ी बूंदों में डिजाइन की जाती है, उसे धनक कहते हैं। धनक जोधपुर की प्रसिद्ध है। चुनरी
- बिन्दी के आकार में बड़ी डिजाइन चुनरी कहलाती है। चुनरी जोधपुर की प्रसिद्ध है। बंधेज की चुनरी शेखावाटी की प्रसिद्ध है।
मुकेश – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- कपड़े पर बादले से छोटी-छोटी बिन्दी की कढ़ाई मुकेश कहलाती है।
लुगड़ा – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- यह ओढ़नी का एक प्रकार है जो पाटौदा (सीकर) का प्रसिद्ध है। जरी भाँत की ओढ़नी जैसलमेर की प्रसिद्ध है।
पोमचा – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- यह दो रंग का होता है- गुलाबी व पीला।
- पीला पोमचा पुत्र प्राप्ति पर ओढ़ा जाता है जो वंशवृद्धि का प्रतीक माना जाता है। पीला पोमचा सर्वाधिक जाट महिलाओं द्वारा ओढ़ा जाता है। पीला पोमचा जयपुर का प्रसिद्ध है।
- गुलाबी पोमचा पुत्री प्राप्ति पर प्रसूति महिला द्वारा ओढ़ा जाता है।
- चीड़ का पोमचा हाड़ौती का प्रसिद्ध है जो काले रंग का होता है। यह विधवा महिलाओं द्वारा ओढ़ा जाता है।
- दुल्हन की ओढ़नी को पंवरी कहते हैं जो लाल या गुलाबी रंग की होती होती है।
ओढ़नी – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- ओढ़नी महिलाओं का प्रमुख वस्त्र है जो कमर से ऊपर सिर तक ओढ़ा जाता है यह चद्दर के आकार की होती है। ओढ़नी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है।
(अ) पंवरी – लाल या गुलाबी रंग की ओढ़नी जो दुल्हन पहनती है, पंवरी कहलाती है।
(ब) पीले रंग की ओढ़नी – यह पीले रंग की होती है जिस पर बड़े-बड़े लड्डू बने होते है। जिस महिला के लड़का हुआ है वह ओढ़ती है।
(स) गुलाबी ओढ़नी – यह ओढ़नी गुलाबी रंग में रंगी होती है। जो महिला अभी तक माँ नहीं बनी है, वह ओढती है।
(द) चीड़ का पोमचा- यह काले रंग की ओढ़नी होती है, जो हाड़ौती में विधवा महिलाऐं ओढ़ती है।
पिछवाईयाँ – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- इस कला में भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं को कपड़े पर चित्रित किया जाता है। यह कला नाथद्वारा (राजसमंद) की प्रसिद्ध है। नरोत्तम लाल शर्मा प्रमुख पिछवाई चित्रकार हैं। बातिक
- कपड़े पर कच्चा चित्र बनाकर उसे मोम से ढक दिया जाता है तथा कपड़े को रंग में डुबोकर सुखा दिया जाता है। जिस स्थान पर मोम लगा होता है उस स्थान पर रंग नहीं चढ़ता है यह कला खंडेला (सीकर) की प्रसिद्ध है। उमेश चन्द्र शर्मा व अब्दुल मजीद प्रमुख बातिक चित्रकार हैं।
पड़/फड़ चित्रण – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- कपड़े पर किसी लोक देवता की चित्रों सहित प्रशंसा का चित्रण करना फड़ कहलाता है। फड़ शाहपुरा की प्रसिद्ध है। श्रीलाल (2006 में पद्म श्री) जोशी/शांति लाल इस कला के प्रमुख चित्रकार (चितेरा) हैं। प्रदीप मुखर्जी ने 108 लघु चित्रों की रामचरित मानस पर फड़ चित्रित की। शान्तिलाल जोशी ने अमरसिंह, पृथ्वीराज, गोगाजी, गणगौर सवारी, हल्दीघाटी युद्ध, पद्मिनी जौहर, संयोगिता हरण, शिवाजी आदि की फड़ का चित्रण किया ।
- टेक जी, मुकुन्द जी, धुलजी, जड़ावजी, धीसूलाजी, सूरजमल, बख्तावर, रामदया, चौथमल व रामचन्द्र जोशी पार्वती जोशी, गोतली देवी आदि चित्रकारों ने फड़ चित्रकला का विकास किया।
प्रमुख फड़ – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- देवनारायण जी की फड़- जंतर वाद्य यंत्र द्वारा गुर्जर भोपा देवनारायणजी की फड़ का वाचन करता है। गुर्जर जाति में भैरु की पूजा करने वाले पुरुष को भोपा कहते हैं। यह फड़ 25 हाथ लम्बी है जो राजस्थान की सबसे बड़ी फड़ है। 2 सितम्बर, 1992 को इस फड़ पर डाक टिकट जारी की गई जो फड़ पर जारी एकमात्र डाक टिकट है। डाक टिकट जारी होने के बाद यह फड़ सबसे छोटी (2 x 2 सेमी) कहलाती है। इस फड़ पर देवनारायण की घोड़ी लीलागर हरे रंग में चित्रित की जाती है। देवनारायण जी की फड़ सर्वाधिक चित्रांकन वाली फड़ कहलाती है। इनकी फड़ जर्मनी संग्रहालय में भी रखी है।
- पाबूजी की फड़ – ऊँट बीमार होने पर नायक भोपा रावणहत्था वाद्य यंत्र से पाबूजी की फड़ का वाचन करता है। पाबूजी की फड़ सबसे प्रसिद्ध है। पाबूजी की फड़ में सबसे पहले भाले का चित्रण है पाबूजी की घोड़ी केसर कालमी को काले रंग में चित्रित किया गया है। पाबूजी की फड़ सबसे चौड़ी है।
- रामदेवजी की फड़ – रामदेवजी की फड़ का वाचन कामड़ भोपा रावणहत्था वाद्य यंत्र से करता है। रामदेवजी की फड़ का सर्वप्रथम चित्रण चौथमल जोशी द्वारा किया गया।
- रामदला व कृष्ण दला की फड़ – रामदला-कृष्ण दला की फड़ का वाचन भाट जाति दिन में बिना वाद्य के करते हैं। यह फड़ हाड़ौती की प्रसिद्ध है। इस फड़ का सर्वप्रथम चित्रांकन शाहपुरा के धुलजी चितेरे ने किया था। इसमें लेखा-जोखा बताया जाता है।
- भैंसासुर की फड़- इस फड़ का मौन वाचन होता है। इस फड़ में वाद्य यंत्र काम में नहीं लिया जाता है। इस फड़ का बावरी जाति द्वारा शकुन के रूप में पूजन होता है।
- अमिताभ बच्चन की फड़- इस फड़ का चित्रांकन पतासी देवी भोपन व रामलाल भोज द्वारा किया गया। अमेरिका में भी इसका वाचन किया गया।
फड़ कटने – फटने पर उन्हें पुष्कर झील ( अजमेर ) में बहा दिया जाता है जिसे फड़ ठंडी करना कहते है।
भौंडल छपाई – इस छपाई में कपड़े पर अभ्रक से छपाई होती है जो दूर से चमकती है। यह भीलवाड़ा की प्रसिद्ध है।
चटापटी वर्क :- कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़े दूसरे कपड़े पर लगाना चटापटी वर्क कहलाता है। चटापटी का काम शेखावाटी का प्रसिद्ध है।
पेचवर्क :- कपड़े को डिजाइनों में काटकर उस डिजाइन को दूसरे कपड़े पर सिलना पेचवर्क कहलाता है, जो बाड़मेर तिलोनिया (अजमेर) व शेखावाटी का प्रसिद्ध है।
अन्य कलाएँ – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- काष्ठ कला – काष्ठ कला में खराद कला उदयपुर की प्रसिद्ध है यह कला महाराणा जगतसिंह के समय प्रारम्भ हुई। इस कला के लिए राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा दिया जा रहा है।
- बस्सी, चित्तौड़ की काष्ठ कला प्रसिद्ध है। इस कला के जन्मदाता प्रभात जी सुथार है। प्रभात जी सुथार ने गणगौर का चित्र बनाया। यह कला 1652 ई. में मालपुरा, टोंक से गोविन्द सिंह के समय प्रारम्भ हुई। काष्ठ पर कलात्मक शिल्प जेठाना (डूंगरपुर) की प्रसिद्ध है।
बेवाण – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- लकड़ी की मंदिरनुमा आकृति जिसमें मूर्ति स्थापित होती है उसे बेवाण कहते हैं। यह बस्सी (चित्तौड़) की प्रसिद्ध है। मिनिएचर वुडन टेम्पल भी कहते है।
- कावड़ – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- श्रावण मास में शिवजी पर चढ़ाने के लिए लकड़ी की बनी कावड़ में पानी लाया जाता है। यह चलता-फिरता देवालय होता है। कावड़ बनाने का काम बस्सी में खेराडी जाती द्वारा होता है। द्वारका प्रसाद जांगीड़ मांगीलाल प्रमुख मिस्त्री है।
तोरण – तोरण काष्ठ का बना होता है। जिसे लड़की की शादी के समय उसके घर के आगे लगाया जाता है। तोरण शक्ति परीक्षण का प्रतीक होता है।
गणगौर – यह कला बस्सी की प्रसिद्ध है। प्रभाते सुधार द्वारा निर्मित आदमकद लकड़ी की गणगौर 350 वर्ष पुरानी है जो वर्तमान में केसरी सिंह के यहां सुरक्षित है। बस्सी (चितौड़गढ़) गणगौर शिव-पार्वती का प्रतीक है जिसकी सवारी निकलती है।
कठपुतली – कठपुतली अरडू की लकड़ी की होती है जो उदयपुर, चित्तौड़गढ़, जयपुर की प्रसिद्ध है। स्व. श्री देवीलाल सामर ने इसे अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध किया।
- देवी लाल सामर को कठपुतली खेल के लिये पद्मश्री भी दिया गया। 22 फरवरी 1952 में देवीलाल सामर ने उदयपुर में भारतीय लोक कला मण्डल की स्थापना की। उदयपुर में ‘कठपुतली संग्रहालय’ भी बना है। मारवाड़ में नट व भाट जाति कठपुतलियों के खेल दिखाती है। कठपुतलियों का सूत्रधार स्थानक कहलाता है। भारत में छाया पुतली, धागा पुतली, छड़ पुतली, दस्ताना पुतली प्रसिद्ध है। पृथ्वीराज-संयोगिता, अमरसिंह राठौड़, विक्रमादित्य की सिंहासन बत्तीसी का खेल प्रसिद्ध है।
- पूजन सामग्रियाँ काष्ठ की बनी होती है जो उदयपुर की प्रसिद्ध है। लकड़ी के बर्तन बगड़ी नगर (पाली) के प्रसिद्ध है।
- चंदन काष्ठ कला चूरू की प्रसिद्ध है। इस कला को मालचंद बादमवाले, चौथमल, नवरतन, ओमप्रकाश ने प्रसिद्ध किया।
- तीर – कमान- यह बोडीगामा (डूंगरपुर), चन्द्रजी का गुढ़ा (बाँसवाड़ा) की प्रसिद्ध है।
- लकड़ी के खिलौने उदयपुर, जोधपुर, स. माधोपुर के प्रसिद्ध हैं।
- लकड़ी के झूले जोधपुर के प्रसिद्ध हैं।
- मांडणे – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- पुत्र प्राप्ति या शादी के समय हरमिचए गेड, गेरु, पेवड़ी, काजल से दीवार पर चित्रांकन किया जाता है जिसमें त्रिभुज, आयत, वृत्त, अष्टकोण रेखाएँ होती हैं। होली पर चौकड़ी मांडने बनाये जाते हैं। मांडणे वर्तन व कपड़े पर बनाये जाते हैं।
थापा – हरमिच द्वारा महिलाएँ दीवार पर देवी-देवताओं का चित्रांकन करते हैं जिसे थापा कहते हैं। अलग-अलग त्योहारों पर भिन्न-भिन्न थापे बनाये जाते हैं। जो निम्न हैं –
गोगा जी के थापे – गोगाजी को घोड़े पर सवार कर यह थापे गोबर से बनाये जाते हैं।
गणगौर के थापे – यह थापे गणगौर व ईसर के बनाये जाते हैं।
शीतला माता के थापे – इन थापों में गधा, कांच, कांगसी आदि चित्रण किया जाता है।
नागपंचमी के थापे- इन थापों में मनुष्य व साँप का चित्रण किया जाता है।
- रंगोली- त्योहार या उत्सव पर फर्श पर चित्रांकन किया जाता है।
4.सांझी – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- कुंवारी कन्याओं द्वारा गोबर से दीवार पर चित्रांकन किया जाता है। सांझी प्रसूती महिला के मकान के आगे पुत्र प्राप्ति पर की जाती है। नाथद्वारा (राजसमंद) में केले के पत्तों की सांझी प्रसिद्ध है। आश्विन कृष्ण एकम से अमावस्या तक साँझियाँ बनायी जाती है तथा अन्तिम दिन की सांझी पानी में बहा दी जाती है। अन्तिम दिन की सांझी सबसे बड़ी होती है जिसे संझया कोट कहते हैं। सूरज, चांद, मोर, बिजणी, जनेऊ, छावड़ी, पंखा, चौपड़, सास-बहू की सांझी प्रसिद्ध है। सांझी को गौरी/पार्वती का रुप मानते हैं। उदयपुर में फूलों, केलों के पत्तों, पानी की सांझी प्रसिद्ध है। उदयपुर का मछान्दरनाथ मन्दिर संझाया मंदिर कहलाता है।
- भराड़ी – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- यह भीलों की देवी है। विवाह के समय इसका दीवार पर चित्रांकन होता है। भराड़ी का चित्राकंन चावल के घोल द्वारा भीलों का जवाई करता है। भराड़ी चित्राकंन कुशलगढ़ (बाँसवाड़ा) का प्रसिद्ध है।
- मेहन्दी – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
शरीर पर अस्थाई चित्रांकन। मेहन्दी नारी के 16 शृंगार में गिना है। मेहन्दी सुहाग का प्रतीक भी माना जाता है। तीज त्यौहार, शादी, विवाह महिलाऐं मेहन्दी लगाती है। मेहन्दी सोजत (पाली) की प्रसिद्ध है।
नोट:- बिस्सा जाति की महिलाऐं मेहन्दी नहीं लगाती है।
- गोदना – शरीर पर स्थाई चित्रांकन।
- पेपरमेशी/कुट्टी का काम- कागज की लुगदी से वस्तुएँ बनायी जाती है। यह जयपुर का प्रसिद्ध हैं। इस कला में लैम्प स्टैण्ड, पैन स्टैण्ड, फूलदान व सजावटी समान बनाया जाता है। वनस्थली (टोंक) के वीरेन्द्र शर्मा, भवानीशंकर शर्मा, देवकीनंद शर्मा, मंजू शर्मा प्रमुख कारीगर हैं।
- गलीचे– ये जयपुर, ब्यावर, किशनगढ़, टोंक, मालपुरा, भीलवाड़ा व कोटा के प्रसिद्ध हैं। जयुपर संग्रहालय में इराक के शाह अव्वाश द्वारा मिर्जा राजा जयसिंह को दिया गया गलीचा है। बीकानेर में उत्तम श्रेणी के ऊन से वियना तथा फारसी डिजायनों के गलीचे प्रसिद्ध है जो जैल में कैदियों द्वारा बनाये जाते हैं।
- खड्डी छपाई – कपड़े पर सोने-चांदी का काम खड्डी छपाई कहलाती है।
- मिरर वर्क/कांच का काम- कपड़े पर छोटे-छोटे काँच के टूकड़े रख कर उन्हें धागे से कढ़ाई कर देते है, यही मिरर वर्क कहलाता है। कपड़े पर कांच का काम चौहटन (बाड़मेर) का प्रसिद्ध है। कांच का सर्वाधिक काम जैसलमेर में होता है।
- जरी-गोटा – जरीकला में कपड़े पर जरी के तार से कढ़ाई की जाती है। यह कला सूरत से सवाई जयसिंह जयपुर लाये थे।
गोटा – कपड़े के चारों ओर कच्ची जरी, सोना, चाँदी के तारों से अलंकरण किया जाता है। कम चौड़ा गोटा जिस पर खजूर के चित्र होते हैं उसे ‘नक्शी’ कहते हैं। जिस गोटे पर खजूर की पत्तियों के चित्र होते हैं उसे लहर गोटा कहते हैं। गोटा खंडेला (सीकर), जयपुर, भिनाय, अजमेर का प्रसिद्ध है।
- लप्पा सूत के ताने व बादले के बाने से निर्मित कपड़ा जिसकी बुनाई में ही अलंकरण किया जाता है जिसे लप्पा कहते हैं। जब लप्पा कम चौड़ाई का हो जाता है तो उसे लप्पी कहते हैं। चौदानी, सतदानी, नौदानी बिन्दुओं के आधार पर लप्पा के प्रकार हैं।
बादला – सोना-चाँदी या जरी के तार को बादला कहते हैं।
किरण- बादले से बनी झालर को किरण कहते हैं जो साड़ी व घूँघट के किनारे लटकी है।
बांकड़ी – बादले के तार से ओढ्नी व दुपट्टों पर बेल बनाई जाती है जिसे बांकड़ी कहते हैं इसे चम्पाकली की बेल भी कहते हैं।
ताश- सूती ताने पर बादले के बाने से बनाया गया कपड़ा ताश कहलाता है।
गोखरु – यह गोटे को मोड़कर बनाया जाता है जो ओढ़नों पर लगाया जाता है।
नक्शी – कम चौडाई का गोटा नक्शी कहलाता है।
चंपाकली – गोटे से बनी बेल, चंपाकली कहलाती है।
मुकेश- कपड़े पर बादले से छोटी-छोटी बिंदिया बनाना मुकेश कहलाता है।
बिजिया – ओढ़ने पर चिपकाने के लिए गोटे से फूल बनाये जाते हैं जिसे बिजिया कहते हैं।
- मूर्ति कला – मूर्तिकला का विकास सिन्धु सभ्यता के समय ही हो गया था। हड़प्पा से पकी हुई मिट्टी की मातृदेवी की मूर्ति, मोहनजोदड़ो से कांसे नृतकी की मूर्ति सिन्धु कालीन मूर्तिकला के उदाहरण है।
संस्कृति – RAJASTHAN ME HASTHSHILP
- मूर्तिया मिट्टी, पत्थर, सोना, चांदी, पीतल आदि से बनाई जाती है।
- मौर्यकाल की दो शैलिया विकसित हुई- गांधार शैली व मथुरा शैली। उत्तर भारत में मथुरा मूर्तिकला का प्रमुख केन्द्र था।
- 1933 में नोह (भरतपुर) से जोखवावा की विशाल मूर्ति प्राप्त हुई जो शुगकालीन थी। यह मूर्ति चतुर्मुखी है जो 1.5 मीटर ऊँची है। नांद (पुष्कर, अजमेर) से भी शिवलिंग मिला है जो शुंग कुषाणकालीन है। रंगमहल से एकमुखी शिवलिंग की मृणमूर्ति प्राप्त हुई है।
- बौद्ध व वैष्णव मूर्तियों का विकास मध्यमिका/नगरी (चितौड़गढ़) में हुआ। राजस्थान में प्राचीनतम वैष्णव मूर्तियां उत्तर कुषाणकालीन तथा आरंभिक गुप्तकालीन मिली है।
- प्राचीन समय में बैराठ (जयपुर) राजस्थान में बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था। नोह ( भरतपुर ), रैड ( टोंक ), नगरी ( चित्तौडग़ढ़ ) से भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी से सम्बंधित कुषाणकालीन मृण्मूर्तिया मिली है।
- गुप्तकाल को मूर्तिकला का स्वर्णकाल माना जाता है। सारनाथ (उत्तरप्रदेश) से प्राप्त भगवान बुद्ध की पद्मासन- मुद्रा गुप्तकालीन मूर्तिकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। गुप्तकाल में भगवान शिव का अर्द्धनारीश्वर रूप, हरिहर व भगवान विष्णु के दस अवतारों की मूर्तियां बनी थी। मंडोर से 12-13 फीट ऊँचे दो गुप्तकालीन तोरण स्तम्भ मिले है जो वर्तमान में जोधपुर संग्रहालय में रखें है। रंगमहल से प्राप्त मृणमूर्ति फलक में गोवर्धन धारण कृष्ण का सुंदर अंकन है।
- पूर्वमध्यकालीन मूर्तिकला को राजपूतकालीन मूर्तिकला कहा जाता है क्योंकि इस समय की मूर्तियों का निर्माण राजपूतों ने करवाया था। राजपूतकालीन मूर्तियों में मूर्ति के अनेक हाथ, चूना-पत्थर-धातु प्रयोग, भावपूर्ण, पूर्ण आकार व सुन्दर मूर्तियों आदि विशेषताएँ थी।
- 12-13वीं सदी में तुकं आक्रमणों से भारतीय मूर्तिकला को गहरा आघात पहुंचा तथा मूर्तिकला का विकास रुक गया।
- महाराणा कुम्भा का समय (1433-68 ई.) भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की बड़ी घटना है। इस समय मानों मूर्तिकला का पुनर्जन्म हुआ। महाराणा कुम्मा ने चितौड़गढ़ दुर्ग में विष्णु स्तम्भ बनवाया जिसे भारतीय ‘मूर्तिकला का शब्दकोश’ कहा जाता है।
- मूर्तियाँ जयपुर की प्रसिद्ध है। टेराकोटा मिट्टी की मूर्तियां मोलेला (राजस्थान) की प्रसिद्ध है। मोहनलाल प्रजापत प्रसिद्ध मूर्तिकार है।
- मूर्तियाँ बनाने वाली जाति को सिलावट कहा जाता है। सफेद संगमरमर की मूर्तियाँ जयपुर, गुढ़ा किशोरी (अलवर) की प्रसिद्ध है। लाल पत्थरों की मूर्तियाँ थानागाजी (अलवर) की प्रसिद्ध है। काले पत्थर की मूर्तियां दूंगरपुर, तलवाड़ा (बाँसवाड़ा) की प्रसिद्ध है। जस्ते की मूर्तियाँ जोधपुर की प्रसिद्ध है। लल्लू प्रसाद शर्मा, नारायण लाल जी, अंकित पटेल, ज्ञान सिंह, मातुराम (खेतड़ी), देवी सहाय प्रमुख मूर्तिकार हैं। संगमरमर पर पच्चीकारी के जादूगर भंवरलाल अंगीरा को कहा जाता है। अर्जुन लाल प्रजापति जयपुर निवासी थे। जिन्हें 2010 ई. मूर्तिकला में पद्मश्री का अवार्ड दिया गया।
- कृषि के औजार नागौर व जयसिंहपुरा (श्रीगंगानगर) के प्रसिद्ध हैं।
- खेल सामग्री हनुमानगढ़ की प्रसिद्ध है।
- चमड़े की बनी जूतियों को मोजड़ी कहते हैं। जो भीनमाल (जालौर) व जोधपुर की प्रसिद्ध है।
- नागौर में U.N.O के सहयोग से कशीदे की जूतियाँ बनाई जाती हैं। नदबई (भरतपुर), बड़ (नागौर), भीनमाल (जालौर) में भी कशीदे की जूतियाँ बनाई जाती हैं
- दरिया टांकला (नागौर), सालावास (जोधपुर), लवाणा (दौसा), बाड़मेर व भीलवाड़ा की प्रसिद्ध है।
- ऊनी कम्बल व कालीन जैसलमेर व बीकानेर की प्रसिद्ध है
- कम्बल बुनाई गड़रा रोड़ (बाड़मेर) की प्रसिद्ध है।
- नमदे टोंक के प्रसिद्ध हैं। नमदे ऊन को कुट-कुटकर उसे जमाकर बनाये जाते है।
- खेसले लेटा (जालौर) के प्रसिद्ध हैं
- खेस चौमू (जयपुर) की प्रसिद्ध हैं।
- पट्टू, बरड़ी, शॉल, लोइयाँ जैसलमेर के प्रसिद्ध हैं।
- पत्थर पर नकासी बीकानेर, जैसलमेर की प्रसिद्ध है।
- ऊनी लोई नापासर (बीकानेर) की प्रसिद्ध है।
- मलमल का काम मथानियां (जोधपुर) का प्रसिद्ध है।
साड़ियां:- RAJASTHAN ME HASTHSHILP
साडियां महिलाओं का सबसे प्रिय वस्त्र है संपन्न समाज की महिलाऐं व शादी विवाह में साड़ीयां पहनी जाती है। साड़ी लगभग 6 मीटर लम्बी होती है।
(अ) कोटा डोरिया/मसूरिया साड़ी – रेशमी व सूती धागों के साथ जरी के काम युक्त साड़ी कोटा डोरिया/मसूरिया साड़ी कहलाती है जो कैथून (कोटा) व मांगरोल (बारां) की प्रसिद्ध है, इसे राजस्थान की ‘बनारसी साड़ी’ कहते है। कोटा के दीवान झाला जालिमसिंह ने मैसूर से बुनकरों को बुलाकर यह काम कोटा में प्रारम्भ किया। महमूद मसूरिया ने मैसूर जैसी साड़िया बनाई, जिस कारण इस साड़ी को मसुरिया साड़ी/कोटा डोरिया कहा जाने लगा।
(ब) जेनब की साड़ियां- ये साड़ियां कोटसुँआ, (दीगोद, कोटा) की प्रसिद्ध है। श्रीमती जेनब ने सूती साड़ियों का निर्माण प्रारम्भ किया जिस कारण इन्हें जेनब साडियां कहा जाने लगा।
- सुराही व कुपी बीकानेर की प्रसिद्ध हैं।
- कुंजिया बस्वा (दौसा) का प्रसिद्ध है जो ठंडा पानी रखने के काम आता है।
- छाता रेडियो व टीवी फालना (पाली) की प्रसिद्ध है।
- सुंघनी नश्वार व्यावर (अजमेर) प्रसिद्ध है।
- बटुए, जस्ते की मूर्ति व हाथी दाँत की चूड़ियाँ जोधपुर की प्रसिद्ध है।
- खस की इत्र सवाईमाधोपुर व भरतपुर की प्रसिद्ध है।
- तुड़ियां, पायल, पायजेब धौलपुर की प्रसिद्ध हैं।
- गोटा खण्डेला (सीकर) का प्रसिद्ध है।
- हाथी दाँत व चंदन की खुदाई जयपुर की प्रसिद्ध है।
- लाख का काम जयपुर, सवाईमाधोपुर, खण्डेला, लक्ष्मणगढ़ व इन्द्रगढ़ (कोटा) का प्रसिद्ध है। रामसिंह ने प्रसिद्ध किया।
- नान्दणे/घाघरे शाहपुरा (भीलवाड़ा) के प्रसिद्ध हैं।
- मूल्यवान पत्थरों के सोने-चांदी के काम जयपुर के प्रसिद्ध हैं।
नोट – जयपुर में पन्ने की सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय मंडी है।
- पाने कागज के बने होते हैं जिन पर गणेशजी, लक्ष्मीजी, रामदेवजी,
- गोगाजी, तेजाजी, शिव – पार्वती, देवनारायणी, रामकृष्ण आदि के चित्र बने होते हैं।
- मिट्टी के पात्रों पर कलाकारी मृणशिल्प कहलाती है जिसके लिए मोलेला गाँव (राजसमंद) प्रसिद्ध है।
- ग्रामीण क्षेत्र में बाँस व चिकनी मिट्टी से सामान रखने के लिए महलनुमा आकृति बनायी जाती है जिसे वील कहते हैं।
- चमड़े का सर्वाधिक काम तिलोनीया (अजमेर) में होता है।
- रामदेवजी के कपड़े के घोड़े पोकरण (जैसलमेर) तथा मामा देव के घोड़े हरजी गाँव (जालौर) के प्रसिद्ध हैं।
- तिरंगा – तिरंगा झण्डा, आलूदा गांव (दौसा) का प्रसिद्ध है। 1947 में लालकिले (दिल्ली) पर फहराया गया। तिरंगा अलूदा गांव के बुनकरों ने ही बनाया था।
मोण – मिट्टी के बड़े मटके मोण कहलाते है जो मेड़ता (नागौर) के प्रसिद्ध है।
– RAJASTHAN ME HASTHSHILP FAQs ?
प्रश्न – भराड़ी चित्राकंन कहा का प्रशिद्ध है ?
उत्तर – भराड़ी चित्राकंन कुशलगढ़ (बाँसवाड़ा) का प्रसिद्ध है।
प्रश्न – किस जाती की महिलाये मेहँदी नहीं लगाती है ?
उत्तर – बिस्सा जाति की महिलाऐं मेहन्दी नहीं लगाती है।
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