Guhil Vansh | गुहिल वंश (565 – 1303 )

मेवाड़ का गुहिल – सिसोदिया राजवंश –

Guhil Vansh – डॉ. भण्डारकर ने कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के आधार पर मेवाड़ के गुहिलों को ब्राह्मणवंशी माना है। अबुल फजल के अनुसार गुहिल ईरान के बादशाह नौशेर खाँ आदिल की सन्तान थे। कर्नल टॉड ने इन्हें विदेशी माना है जबकि डॉ. ओझा के अनुसार गुहिल प्राचीन क्षत्रियों के वंशज थे और वे विशुद्ध सूर्यवंशीय राजपूत थे।

  • माना जाता है कि गुहिल ने इस वंश की स्थापना 566 ई. में की। उसी के नाम पर इसे गुहिल वंश के नाम से जाना गया।

मेवाड़ में 2 वंशो का शासन रहा है

1 – गुहिल (565 – 1303 ) – गुहिलादित्य से रतनसिंह तक ( उपाधि – रावल )

2 – सिसोदिया ( 1326 – 1948 ) – हम्मीर से भूपालसिंह तक ( उपाधि – राणा / महाराणा )

गुहिल वंश Guhil Vansh

शाखास्थापनासंस्थापक
मेवाड़565 ई.गुहिल
वागड़ (डूंगरपुर)1178 ई.सामन्तसिंह
देवलिया-प्रतापगढ़1473 ई.सूरजमल
बाँसवाड़ा1518 ई.जगमाल
शाहपुरा1631 ई.सुजानसिंह
गुहिल वंश

गुहिलादित्य – Guhil Vansh का संस्थापक

  • वल्लभीनगर के राजा शिलादित्य का पुत्र
  • माता – पुष्पावती
  • कमलावती ब्राह्मणी द्वारा पाला गया, 565-66 ई. गुहिल वंश की नींव
    रखी।

बप्पा रावल/कालभोज

  • गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक, हारित ऋषि कि सेवा की।
  • 728/734 ई. में चित्तौड़ शासक मानमौरी को हराकर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया व अपनी राजधानी नागदा को बनाई।
  • बप्पा रावल की छतरी – नागदा में
  • C.V. वैदय ने बप्पा रावल को ‘चार्ल्स मार्टीन’ कहा।
  • बप्पा के पास 12 लाख 72 हजार सेना थी।
  • आहड़ शिलालेख में बप्पा रावल को ‘मुकुटमणी’ समान बताया है।
  • रणकपुर प्रशस्ति ME बप्पा RAVAL व KALBHOUJ KO ALAG – ALAG BATAYA HAI |
  • बप्पा रावल मेवाड़ का प्रथम शासक था जिसने मेवाड़ में सोने के सिक्के चलाए। यह सिक्का अजमेर से मिला। जिसका वजन 115 ग्रेन था।

एकलिंगजी मन्दिर – कैलाशपुरी, उदयपुर। मेवाड़ के वास्तविक राजा। मन्दिर बप्पा रावल ने बनवाया।

मेवाड़ महाराणा युद्ध में जाने से पूर्व एकलिंग जी का आर्शीवाद लेते जिसे ‘आसका माँगना’ कहते हैं।

एकलिंग जी राजस्थान में पाशुपत/लकुलीश सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र है जहाँ फाल्गुण कृष्ण त्रयोदशी (महाशिवरात्री) के दिन मेला भरता है।

शासकराजधानी
बप्पा रावलनागदा
अल्लटआहड़
जैत्रसिंहचित्तौड़गढ़
कुम्भाकुम्भलगढ़
सांगाचित्तौड़गढ़
महाराणा प्रतापकुम्भलगढ़, आवरगढ़, चावण्ड
अमरसिंहचावण्ड, उदयपुर
मेवाड़ महाराणा

अल्लट- Guhil Vansh

  • ख्यातों में अल्लट को ‘आलुराव’ कहा गया है। इसने हूण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया था।
  • अल्लट ने आहड़ को दूसरी राजधानी बनाकर वहाँ वराह मन्दिर का निर्माण करवाया था।
  • मेवाड़ में सर्वप्रथम नौकरशाही प्रथा की शुरूआत की।

शक्तिकुमारGuhil Vansh

  • इसके समय मालवा के परमार शासक मुंज ने आहड़ पर आक्रमण कर नगर को नष्ट कर दिया था।
  • मुंज के उत्तराधिकारी भोज परमार ने चित्तौड़ पर अधिकार कर त्रिभुवननारायण मन्दिर का निर्माण करवाया तथा नागदा में भोजसर तालाब की स्थापना की।

रणसिंह –

  • इसके समय गुहिल दो शाखाओं ME बँट गये-
  1. प्रथम रावल शाखा – रणसिंह पुत्र खेमसिंह ने चित्तौड़ पर शासन किया।
  2. दूसरी राणा शाखा – रणसिंह का पुत्र राहप सिसोदा ठिकाने में चला गया व सिसोदिया वंश की नीव रखी।

सामन्तसिंह- Guhil Vansh

जालौर के कीर्तिपाल चौहान ने सामन्तसिंह को पराजित कर मेवाड़ से निकाल दिया, परिणामस्वरूप सामन्तसिंह ने वागड़ में नये राज्य की स्थापना की सामन्तसिंह के छोटे भाई कुमारसिंह ने मेवाड़ पर पुनः अधिकार कर लिया था।

जैत्रसिंह (1213-1250 ई. ) – Guhil Vansh

  • जैत्रसिंह के समय सुल्तान इल्तुतमिश की सेना ने नागदा पर आक्रमण कर नगर को नष्ट कर दिया, परन्तु जैत्रसिंह ने भुताला के युद्ध (1222- 28 ई.) में इल्तुतमिश की सेना को पराजित कर भगा दिया।
  • जैत्रसिंह और तुर्कों के मध्य युद्ध का वर्णन जयसिंह सूरी ने ‘हम्मीरमदमर्दन’ ग्रन्थ में किया है।
  • तुर्क सेना द्वारा नागदा को नष्ट कर दिये जाने के कारण जैत्रसिंह ने चित्तौड़ को मेवाड़ की राजधानी बनाया।
  • जैत्रसिंह के शासन के अन्तिम काल में 1248 ई. में महमूद की सेना ने मेवाड़ पर आक्रमण किया था। सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद की सेना ने मेवाड़ पर आक्रमण किया था।
  • मेवाड़ के राजनीतिक और सांस्कृतिक केन्द्र आहड़ को गुजरात के चालुक्यों से मुक्त करवाना जैत्रसिंह की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है।
  • इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा ने जैत्रसिंह के शासनकाल को ‘मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्णकाल’ माना है।

तेजसिंह (1250-1273 ई.)- Guhil Vansh

  • चालुक्यों की भाँति उसने ‘उभापतिवरलब्धप्रौढप्रताप’ उपाधि धारण की। परमभट्टारक, महाराजाधिराज और परमेश्वर उसके अन्य विरुद थे।
  • तेजसिंह के समय 1253-54 ई. में बलबन ने मेवाड़ पर आक्रमण किया था।
  • राजस्थान में उपलब्ध प्रथम चित्रित ग्रन्थ ‘श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि’ 1260 ई. में तेजसिंह के समय ही आहड़ में चित्रित किया गया था।
  • तेजसिंह की पत्नी जयतल्लदेवी ने चित्तौड़ के किले में श्यामपार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया था।

समरसिंह (1273-1302 ई. ) – Guhil Vansh

  • समरसिंह के समय के 8 शिलालेख प्राप्त होते हैं।
  • इसके समय रणथम्भौर के हम्मीर ने मेवाड़ पर आक्रमण कर खिराज वसूल किया था।
  • माना जाता है कि अंचलगच्छ के आचार्य अमितसिंह सूरी के उपदेश पर समरसिंह ने अपने राज्य में जीव-हत्या पर रोक लगा दी थी।

रतनसिंह (1302-03 ई.)- Guhil Vansh

  • रतनसिंह समरसिंह का पुत्र तथा मेवाड़ के गुहिल वंश की रावल शाखा का अन्तिम शासक था। उल्लेखनीय है कि राजप्रशस्ति महाकाव्य में रतनसिंह का नाम नहीं मिलता।
  • मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत (1540 ई.) के अनुसार सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रतनसिंह की अति सुन्दर पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण किया था।
  • अलाउद्दीन खिलजी ने 28 जनवरी, 1303 ई. को दिल्ली से चलकर चित्तौड़ का घेरा डाल दिया। अमीर खुसरो इस अभियान में भी सुल्तान के साथ था।
  • 25 अगस्त, 1303 ई. को दुर्ग पर सुल्तान का अधिकार हो गया। रावल रतनसिंह प्रसिद्ध सेनानायकों गोरा और बादल सहित वीरगति को प्राप्त हुआ तथा रानी पद्मिनी के नेतृत्व में स्त्रियों ने जौहर कर लिया। यह चित्तौड़ का प्रथम साका था।
  • अमीर खुसरो के अनुसार दुर्ग पर अधिकार करने के बाद सुल्तान ने 30 हजार हिन्दुओं का कत्ल करवा दिया था। उल्लेखनीय है कि अमीर खुसरो ने इस समय चित्तौड़ के किसी साके या जौहर का वर्णन नहीं किया है।
  • अलाउद्दीन खिलजी ने अपने पुत्र खिज्रखाँ को चित्तौड़ में नियुक्त कर चित्तौड़ का नाम ‘खिज्राबाद’ कर दिया।

पद्मिनि सिंहलद्विप की राजकुमारी

  • पिता – गन्धर्व सेन
  • माता- चंपावती
  • गौरा पद्मिनी का चाचा गौरा व बादल पद्मिनी का भाई था।
  • पद्मिनी के पास हिरामन तोता था।

पद्मावत- Guhil Vansh

  • 1540 में शेरशाह सूरी के समय अवधी भाषा में मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखा ग्रन्थ।
  • अमीर खुसरो – चित्तौड़ साके का प्रत्यक्ष दृष्टा था।
  • गुरू निजामुद्दीन औलिया
  • मुल नाम – मोहम्मद हसन
  • खुसरो कव्वाली, सितार, मुकरियों (पहेलियों) का जनक था।
  • अलाउद्दीन ने चित्तौड़ दुर्ग अपने पुत्र खिज्र खाँ को सौंप दिया व इसका नाम खिज्राबाद रख दिया।
  • 1313 ई. में सोनगरा चौहान मालदेव को चित्तौड़ का प्रशासक नियुक्त किया गया। मालदेव सोनगरा इतिहास में ‘मँछाला मालदेव’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।

सिसोदिया राजवंशGuhil Vansh

राणा हम्मीर (1326-1364 ई. ) –

  • सिसोदिया राजवंश का संस्थापक। ये सिसोदा ठिकाने के लक्ष्मणसिंह का पौत्र व अरिसिंह का पुत्र था।
  • लक्ष्मणसिंह व इसके 7 पुत्र चित्तौड़ के प्रथम साके में मारे गये।
  • हम्मीर ने मालदेव सोनगरा के पुत्र जैसा/वीरा को हराकर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया।

हम्मीर के उपनाम- Guhil Vansh

  1. मेवाड़ का उद्धारक
    नोट – मेवाड़ का उद्धारक भामाशाह को भी कहा जाता है।
  2. वीर राजा – रसिक प्रिया में कुम्भा ने कहा जो जयदेव की गीत गोविन्द पर लिखी टिका है।
  3. प्रबल हिन्दू राजा – टॉड ने कहा।

सिंगौली युद्ध – हम्मीर व मोहम्मद बिन तुगलक के मध्य हुआ। हम्मीर ने चित्तौड़ में अन्नपूर्णा माता का मन्दिर बनवाया। सिंगोली के युद्ध में हम्मीर ने मुहम्मद बिन तुगलक की सेना को पराजित किया था।

राणा क्षेत्रसिंह ( 1364-1382 ई.)- Guhil Vansh

  • राणा खेता (क्षेत्रसिंह) ने हाड़ौती के हाड़ाओं को दबाया तथा अजमेर, जहाजपुर, माण्डल और छप्पन को मेवाड़ में मिला लिया।
  • खेता ने मालवा के दिलावर खाँ गोरी को पराजित कर मेवाड़-मालवा संघर्ष का सूत्रपात किया था।
  • इसके दासी पुत्र चाचा व मेरा ने मोकल की हत्या कर दी थी।

राणा लक्षसिंह/राणा लाखा (1382-1421 ई.)- Guhil Vansh

  • राणा लाखा (लक्षसिंह) के समय जावर की चाँदी की खान का उत्खनन प्रारम्भ होने से मेवाड़ की समृद्धि का विकास हुआ।
  • पिछोला झील – लाखा के समय पिच्छु/छीतर नामक चिड़ीमार बन्जारे ने अपने बैल की स्मृति में बनवाई।
  • हंसाबाई से विवाह – मारवाड़ के राव चुड़ा की पुत्री हंसाबाई का विवाह लाखा से इस शर्त पर हुआ कि इनका भावी पुत्र मेवाड़ का महाराणा बनेगा इनसे मोकल का जन्म हुआ।
  • माना जाता है कि हंसाबाई का टीका लाखा के ज्येष्ठ पुत्र चूँड़ा के लिए आया था। लाखा द्वारा हंसाबाई से विवाह करने पर चूँडा ने प्रतिज्ञा की कि हंसाबाई के पुत्र हुआ तो वह मेवाड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार त्याग देगा और हंसाबाई का पुत्र ही मेवाड़ का राणा बनेगा।

कुँवर चूडा – उपनाम मेवाड़ का भीष्म पितामह, सत्यव्रत पितृभक्त,मेवाड़ का राम

  • चुडा के वशंज चूंडावत कहलाये।
  • मेवाड़ में पट्टा जारी करने का अधिकार चंडावतों को था।
  • सलूम्बर के चूडांवत ‘रावतजी’ कहलाते थे।
  • मेवाड़ महाराणाओं के तलवार सलूम्बर के चुंडावत बांधते थे। (प्रताप को तलवार कृष्णदास चुण्डावत ने बाँधी)
  • चूंडावतो की सहमती से ही महाराणा बनाया जाता था।
  • महाराणा की अनुपस्थिति में मेवाड़ का प्रशासन चूंडावत सम्भालते।
  • चूडावत ‘हरावल सेना’ में रहते थे।
  • लाखा ने तारागढ़ दुर्ग (बून्दी) जैसा मिट्टी का दुर्ग बनाकर अपनी प्रतिज्ञा पुरी की थी।

राणा मोकल (1421-1433 ई. ) – Guhil Vansh

  • मोकल अल्पावस्था में शासक बना। इस स्थिति में चूँडा प्रशासन संभालता था। परन्तु हंसाबाई के अविश्वास के कारण चूँडा माण्डू चला गया और मेवाड़ का प्रशासन हंसाबाई के भाई राठौड़ रणमल के नियन्त्रण में आ गया।
  • राणा मोकल ने 1428 ई. में रामपुरा के युद्ध में नागौर के फिरोज खाँ को पराजित किया।
  • मोकल ने भोज द्वारा निर्मित त्रिभुवन नारायण मंदिर का पुनिर्माण करवाया। इस समय से इस मंदिर को समिदेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है। एकलिंगजी के मंदिर के परकोटे का निर्माण भी मोकल के समय हुआ था।
  • जब महाराणा मोकल जिलवाड़ा में गुजरात के अहमदशाह के विरुद्ध पड़ाव डाले हुए था, तब उसकी हत्या राणा खेता की उपपत्नी के पुत्र चाचा व मेरा ने कर दी। राणा की हत्या में महपा पंवार आदि सरदार भी शामिल थे।

MAHARANA कुम्भा ( 1433 – 1468 ई. )

कुम्भा या कुम्भकर्ण मोकल की परमार रानी सौभाग्यदेवी का पुत्र था। जिस समय मोकल की हत्या की गई उस समय कुम्भा भी भीलवाड़ा में था परन्तु मोकल के समर्थक सरदारों ने कुम्भा को सुरक्षित चित्तौड़ लाकर राणा घोषित कर दिया।

कुम्भा की प्रारम्भिक उपलब्धियाँ-

चाचा-मेरा का दमन-
इन लोगों ने भीलों को अपनी ओर मिलाकर शक्ति संगठित करने का प्रयास किया परन्तु कुम्भा ने रणमल और राघवदेव के नेतृत्व में सेना भेजकर चाचा व मेरा की हत्या करवा दी। चाचा व मेरा का साथी महपा पँवार भागकर माण्डू चला गया।

आबू- -सिरोही की विजय-

  • सिरोही के देवड़ा चौहान सहसमल को पराजित कर आबू, बसन्तगढ़ और पूर्वी सिरोही पर अधिकार कर लिया।

हाड़ौती पर आक्रमण- Guhil Vansh

राव रणमल के नेतृत्व में मेवाड़ी सेना ने 1435-36 ई. में हाड़ौती पर आक्रमण कर राव वैरीसाल को मेवाड़ का अधीनस्थ बना लिया।

रणमल का दमन और मेवाड़ – मारवाड़ संधि –

  • राठौड़ रणमल का मेवाड़ के दरबार में विशेष प्रभाव था। उसी के कारन चूड़ा मालवा चला गया था तथा रणमल ने चूड़ा के भाई राघवदेव की हत्या करवा दी थी।
  • रणमल विरोधी मैगाड़ीदारों ने चूड़ा को माण्डू से वापस बुला लिया तथा रणमल की प्रेयसी भारमली से मिलकर 1438 ई. में राणमल की हत्या कर दी।
  • राणमल की हत्या के बाद चूड़ा को भेजकर राठौड़ो की राजधानी मण्डौर पर अधिकार कर लिया। परिणामस्वरूप रणमल के पुत्र राव जोधा को बीकानेर के पास काहुनी गाँव में शरण लेनी पड़ी।
  • लगभग 15 वर्ष बाद 1453 ई. में जीवा ने मण्डीर पर पुनः कर लिया। राणा ने भी इस संघर्ष की निरर्थक मानकर जया से मन्त्रि है। सन्धि के अनुसार राव जोधा ने अपनी पुत्री शृंगारदेवी का विवाह RANA कुम्भा KE पुत्र RAYMAL SE KAR DIYA ।

सारंगपुर का युद्ध-1437 ई. – Guhil Vansh

कारण.

  • मोकल के हत्यारे महया पँवार की माण्ड में शरण देना।
  • माण्ड के पूर्व सुल्तान होशंगशाह के पुत्र उमर खाँ को कुम्भा द्वारा सारंगपुर दिलवाना।
  • साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा
  • इस युद्ध में राणा कुम्भा ने माण्डू (मालया) के सुल्तान महमूद प्रथम को पराजित कर बंदी बना लिया परन्तु छ: माह बाद इतिहासकार हरविलास शारदा, कर्नल टॉड और डॉ. ओझा ने कुम्भा की इस नीति की आलोचना की है परन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने कुम्भा का समर्थन किया है।
  • इस विजय की स्मृति में कुम्भा ने चित्तौड़ के किले में विजयस्तम्भ का निर्माण करवाया।

नागौर पर आक्रमण

  • 1451 ई. में नागौर के फिरोज खाँ की मृत्यु के बाद उसके भाई मुजाहिद खाँ और पुत्र शम्स खाँ के बीच उत्तराधिकार संघर्ष प्रारम्भ हो गया।
  • शम्स खाँ कुम्भा की सहायता से नागौर का शासक बन गया परन्तु समझौते के विपरीत उसने नागौर दुर्ग की मरम्मत करवाना प्रारम्भ कर दिया।
  • कुम्भा ने 1456 ई. में नागौर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। शम्स खाँ भागकर गुजरात के सुल्तान की शरण में चला गया जो मेवाड़-गुजरात संघर्ष का कारण बना।
    राणा कुम्भा की हत्या 1468 ई. में उसके ज्येष्ठ पुत्र उदा (उदयकरण) द्वारा कुम्भलगढ़ में कर दी गई।

चंपानेर की सन्धि- 1456 ई. – Guhil Vansh

  • 1456 ई. में गुजरात के सुल्तान कुतुबशाह और मालवा के महमूद खिलजी के मध्य कुम्भा के विरुद्ध चंपानेर की सन्धि हुई।
  • कुम्भा ने कूटनीति से कुतुबशाह को अलग कर 1457 ई. में बदनौर के युद्ध में महमूद खिलजी को पुनः पराजित किया।
  • इस विजय के उपलक्ष्य में कुम्भा ने बदनौर में कुशालमाता के मन्दिर का निर्माण करवाया था।

राणा कुम्भा की उपाधियाँ- Guhil Vansh

  • हिन्दू सुरताण-मुस्लिम विद्वानों द्वारा प्रदत्त उपाधि,
  • अभिनवभरताचार्य – संगीत का ज्ञाता होने के कारण कहा गया।
  • कुम्भा वीणा वादक था। समुद्रगुप्त व औरंगजेब भी वीणा वादक था। समुन्द्रगुप्त व ओरंगजेब भी वीणा वादक था।
  • अकबर नागादा वादक था।
  • हालगुरु – पहाड़ी दुर्गों का विजेता,
  • छापगुरु – छापामार युद्ध प्रणाली में पारंगत,
  • राजगुरु
  • शैलगुरु
  • राणोरासो – साहित्यकारों का आश्रयदाता,
  • दानगुरु -महान दानी,
  • राजगुरु – राजनीतिक सिद्धान्तों में दक्ष,
  • नव्यभारत, राणा कुम्भा की उपाधियों का उल्लेख कुम्भलगढ़ प्रशस्ति और रसिकप्रिया में किया गया है।

कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

  • कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति, कुम्भलगढ़ शिलालेख और एकलिंग महात्म्य ग्रन्थ से के निर्माण कार्यों की जानकारी प्राप्त होती है।

कुम्भा का स्थापत्य :- कुम्भा का समय “राजस्थान स्थापत्य का स्वर्ण काल” माना जाता है।

  • भारत में स्थापत्य का स्वर्ण काल शाहजहाँ समय माना जाता शाहजहाँ ने (लाल किला दिल्ली, दिवाने आम, दिवाने खास, जामा मस्जिद, दिल्ली, तख्ते-ए-ताउस बनवाया) ।
  • वीर विनोद के लेखक श्यामलदास के अनुसार मेवाड़ में 84 में से 32 दुर्ग कुम्भा ने बनवाये।
  1. कुम्भलगढ़ का किला- इस किले का पुनर्निर्माण कुम्भा के स्थापत्यकार मण्डन की देखरेख में हुआ।
  2. अचलगढ़ का किला (सिरोही) 1452 ई.
  3. बसन्तगढ़ का किला (सिरोही)
  4. भोमट दुर्ग (बाडमेर)
  5. मचान दुर्ग (सिरोही)
  6. बैराठ (बदनौर) का किला – भीलवाड़ा।
  7. आधुनिक चित्तौड़ का निर्माता कुम्भा को माना जाता है।

मन्दिर निर्माण- Guhil Vansh

  1. कुम्भास्वामी मन्दिर – कुम्भा ने चित्तौड़गढ़, कुम्भलगढ़ और अचलगढ़ में कुम्भास्वामी मन्दिरों का निर्माण करवाया था।
  2. कुशालमाता का मन्दिर (बदनौर) – इस मन्दिर का निर्माण 1457 ई. में किया गया।
  3. मीरा मन्दिर ( एकलिंगजी, उदयपुर)-
  4. रणकपुर का जैन मन्दिर कुम्भा के मन्त्री धारणकशाह ने इस मन्दिर का निर्माण 1439 ई. में करवाया था। इस मन्दिर का शिल्पी दैपाक था।

शृंगार-चंवरी

  • इसका निर्माण राणा कुम्भा की पुत्री रमाबाई के विवाह के अवसर पर मण्डप के रूप में किया गया था।
  • कुम्भा की साहित्यिक रचनाएँ- कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति से कुम्भा के व्यक्तित्व गुणों और उसकी साहित्यिक रचनाओं की महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
  • कुम्भा विद्वान और उच्च कोटि का संगीतज्ञ था। उसने संगीतराज, संगीतमीमांसा और सूढ प्रबन्ध जैसे संगीतग्रन्थों सहित अनेक ग्रन्थों की रचना की। कुम्भा के संगीत गुरु सारंगव्यास थे। माना जाता है कि कुम्भा की पुत्री रमाबाई भी अच्छी संगीतज्ञा थी।
  1. संगीतराज :- संगीत का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ इसके 5 भाग हैं। कुम्भा वीणा वादक था औरंगजेब व समुद्रगुप्त भी वीणा वादक थे। अकबर नगाड़ा वादक था ।
  2. संगीतमीमांसा
  3. सूढ़ प्रबन्ध
  4. कामराज रतिसार- कुम्भा ने कामशास्त्र पुस्तक लिखी।
  5. संगीत सुधा
  6. वाद्यप्रबन्ध
  7. हरिवार्तिक
  8. संगीतक्रम दीपिका
  9. एकलिंग महात्म्य :- कान्हा व्यास ने लिखी। एकलिंग महात्म्य का
    प्रथम भाग “राजवर्णन” नाम से कुम्भा ने लिखा।

कुम्भा द्वारा लिखी टीका :- Guhil Vansh

(1) रसिक प्रिया :- जयदेव की गीत गोविन्द पर रसिक प्रिया टीका लिखी।
(2) संगीत रत्नाकर पर टीका लिखी।
(3) चंडी शतक पर टीका लिखी।

कुम्भा के दरबारी विद्वान- Guhil Vansh

  • कान्हव्यास- एकलिंग महात्म्य लिखा।
  • नाथा (मण्डन का भाई) – वास्तुमंजरी लिखा।
  • गोविन्द (मण्डन का पुत्र) – कलानिधि, उद्धारधोरणी और द्वारदीपिका ग्रंथ लिखे।

मण्डन – Guhil Vansh

मण्डन कुम्भा का प्रमुख वास्तुकार था जिसने अनेक ग्रन्थों की रचना की। मण्डन कुम्भलगढ़ मुख्य शिल्पी व गुजरात ब्राह्मण।

  1. देवमूर्तिप्रकरण- मूर्तिकला से सम्बन्धित
  2. वास्तुसार- वास्तुकला से सम्बन्धित
  3. राजवल्लभ- इसके 14 भाग हैं। नगरों और महलों से सम्बन्धित
  4. वास्तुमण्डन- वास्तु कला से सम्बन्धित
  5. रूपमण्डन- मूर्तिकला से सम्बन्धित।
  6. प्रासादमण्डन- महलों के निर्माण से सम्बन्धित ।
  7. कोदण्डमण्डन- दण्ड-विधान से सम्बन्धित ।
  8. शगुनमण्डन- शुभ-अशुभ से सम्बन्धित
  9. वैद्यमण्डन- प्राकृतिक चिकित्सा से सम्बन्धित ।

कुम्भा दरबार में जैन विद्धान सोनकुडा व मुनिकुड है।

उदयकरण (1468-1473 ई.)- Guhil Vansh

  • कुम्भा के अन्तिम समय में उन्माद रोग हो गया था। कुम्भलगढ़ दुर्ग में मामादेव कुण्ड पर कुम्भा के पुत्र उदा ने कुम्भा की हत्या कर दी।
  • उदा या उदयकरण जावर और दाड़िमपुर की लड़ाइयों में रायमल से पराजित हुआ तथा भागकर माण्डू चला गया, जहाँ बिजली गिरने से पिता के हत्यारे उदा की मृत्यु हो गई।

रायमल (1473-1509 ई. ) – Guhil Vansh

  • इसने रामशंकर व समयासंकट नामक तालाब बनवाये।
  • रायमल ने माण्डलगढ़ के समीप माण्डू की सेनाओं को पराजित किया था।
  • चित्तौड़ के किले में स्थित अद्भुतजी के शिव मन्दिर का निर्माण और एकलिंगजी के मन्दिर का पुननिमाण राणा रायमल के समय हुआ था।
  • रायमल की रानी शृंगारदेवी ने घोसुण्डी की प्रसिद्ध बावड़ी का निर्माण करवाया था।

रायमल के पुत्र- Guhil Vansh

  1. पृथ्वीराज- रायमल का सबसे योग्य और ज्येष्ठतम पुत्र पृथ्वीराज तेज धावक होने के कारण ‘उड़ना पृथ्वीराज’ नाम से प्रसिद्ध है। पृथ्वीराज ने अजमेर के किले का जीर्णोद्धार करवाकर अपनी पत्नी तारा के नाम पर उसका नाम तारागढ़ कर दिया। पृथ्वीराज को उसके बहनोई सिरोही के जगमाल ने धोखे से मरवा दिया। पृथ्वीराज की छतरी 12 खम्भे की छतरी कुम्भलगढ़ में है।
  2. रायसिंह
  3. जयमल
  4. संग्रामसिंह – विभिन्न घटनाक्रमों के बाद संग्रामसिंह रायमल का उत्तराधिकारी बना।

महाराणा सांगा (1509-1528 ई.)- Guhil Vansh

  • उत्तराधिकारी युद्ध के समय सांगा ने राठौड़ विदा के यहा शरण ली इसके बाद श्रीनगर (अजमेर) के कर्मचंद पवार के यहाँ शरण ली राणा बनने के बाद कर्मचंद को रावत की उपाधि दी व बंबोई गाँव जागीर दी।
  • राणा सांगा का शासनकाल मेवाड़ की शक्ति का चरमोत्कर्ष माना जाता है। राजपूताने के सभी छोटे-बड़े शासक उसका नेतृत्व स्वीकार करते थे। उसका समय निरन्तर युद्ध और संघर्ष का युग था। खानवा के युद्ध के अतिरिक्त सांगा सभी युद्धों में विजयी रहा। विभिन्न युद्धों के कारण उसके शरीर पर तलवार के लगभग 80 घाव थे। उसकी एक आँख, एक हाथ और एक टाँग युद्धों में चोट के कारण खराब हो चुकी थी। इसी कारण कर्नल टॉड ने राणा सांगा को ‘सैनिकों का भग्नावशेष’ कहा है।
  • सभी राजपूतों के नेतृत्व करने कारण के सांगा को हिन्दू पति या हिन्दू पंथ कहा जाता है।
  • सांगा के राज्याभिषेक के समय दिल्ली का सुल्तान सिकन्दर लोदी था। लोदी ने 1504 मे आगरा बसाया [लोदी ने जाम्भोजी के कहने पर गौ- हत्या पर रोक लगाई व लोदी ने जसनाथजी को कतरियासर (बीकानेर) में 500 बीघा जमीन दी ] | संत कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन थे।

खातौली (कोटा) का युद्ध – 1517-18 ई. – Guhil Vansh

राणा सांगा ने खातौली के युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को पराजित किया। इस युद्ध में राणा सांगा का एक हाथ कट गया तथा तीर लगने से एक पैर भी खराब हो गया था।

बाड़ी (धौलपुर) का युद्ध-1518 ई.-

इस युद्ध में सांगा ने मियाँ माखन और मियां हुसैन के नेतृत्व वाली दिल्ली सल्तनत की सेना को पुनः शिकस्त दी।

गागरोण का युद्ध – 1519 ई.- Guhil Vansh

  • सांगा ने मालवा के विद्रोही राजपूत सरदार मेदिनीराय की मदद कर उसे चन्देरी, गागरोण आदि क्षेत्र दिलाकर अपना सामन्त बना लिया था। 1519 ई. में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय ने गागरोण पर आक्रमण किया परन्तु राणा सांगा ने उसे पराजित कर बंदी बना लिया। चित्तौड़ लाकर कुछ समय बाद उसे रिहा कर दिया गया।

सांगा व बाबर :- बाबर ने बयाना दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। बयाना दुर्ग सांगा के जागीरदार हाकिम निजाम के पास था।

पाती-परवन :- एक राजपूती परम्परा जिसमें युद्ध में जानें से पूर्व अन्य शासको को निमन्त्रण भेजा जाता है।

खानवा K युद्ध ME RANA SANGA K सहयोगी-

  1. महमूद लोदी (स्व. इब्राहीम लोदी का भाई)
  2. अलवर/मेवा से हसन खाँ मेवाती
  3. आमेर से पृथ्वीराज
  4. बीकानेर के राव जैतसी का पुत्र कल्याणमल
  5. जोधपुर से राव गांगा का पुत्र मालदेव
  6. चन्देरी से मेदिनीराय
  7. वागड़ से रावत उदयसिंह
  8. सिरोही से अखैराज देवड़ा
  9. इंडर से राजा भारमल
  10. सादडी से झाला अज्जा
  11. रायसेन से सलहदी तँवर
  12. मेड़ता से वीरमदेव
  13. जग्नेर (उत्तरप्रदेश) अशोक परमार खानवा युद्ध में सहायता करने के कारण अशोक परमार को सांगा ने बिजोलिया का जागीर दी थी।
  14. नागौर से खानजादा
  15. गोगुंदा से झाला सज्जा
  16. बागड़ से उदयसिंह
  17. देवलिया से बागसिंह
  18. रायसेन से सलहदि तँवर
  19. सलूम्बर से रतनसिंह चूड़ावत
  20. गोगुन्दा से झाला सज्जा
  • टॉड के अनुसार सांगा के साथ 7 राजा, 9 राव व 104 सरदार थे।
  • बाबरनामा के अनुसार सांगा के साथ 2.20,000 की सेना थी। तबकाते अकबरी अनुसार 1.20000 सेना थी।
  • नागौर खानजादा व रायसेन सलहरी तँवर ने सांगा के साथ विश्वासघात करके बाबर की तरफ मिल गये।

BAYANA KA YUDH ( 16 FEBUARI, 1527 ई.)-

बयाना पर मुगल सेना ने अधिकार कर लिया था परन्तु राणा ने बयाना पर आक्रमण कर बाबर की मुगल सेना को खदेड़ दिया।

बाबर की तैयारियाँ:-

(1) बाबर ने सैनिकों के ऊपर से “तमगा कर” हटाया।
(2) शराब न पीने की कसम खाई।
(3) युद्ध को जेहाद जिहाद (धर्म युद्ध) घोषित किया।

खानवा का युद्ध ( 17 मार्च, 1527 ई. ) –

  • खानवा राजस्थान का प्रथम युद्ध है जिसमें तोपखाने का प्रयोग हुआ।
  • युद्ध में बाबर के तोपची मुस्तफा रूमी व उस्ताद अली थे।
  • युद्ध में ईराक के राजदूत सुलेमान आका व सिसतान हुसैन थे।
  • युद्ध में बाबर ने “तुलगामा पद्धति” का प्रयोग किया जिसमें दायीं ओर नेतृत्व मलिक कासीम व बाबा कश्का ने किया।
  • तुलुगमा में बायीं ओर का नेतृत्व मुमीन आताक व रूस्तमान तुकमान ने किया।
  • युद्ध में सांगा घायल हुआ। रतनसिंह चुण्डावत के मना करने के बाद सादड़ी के झाला अज्जा ने सांगा का राजचिन्ह धारण किया।
  • मालदेव व अखेराज की देखरेख में सांगा को बसवा (दौसा) लाया गया।
  • इसके बाद सांगा रणथम्भौर रूका। युद्ध विजय के बाद बाबर ने राजपूतों के कटे सिरों से मिनार बनवाई व “गाजी” (काफीरो को मारने वाला) की उपाधि धारण की।

नोट- बाबर ने काबुल विजय के बाद- “बादशाह” की पानीपत विजय के बाद “कलन्दर” उपाधि धारण की।

  • सांगा चन्देरी के मेदिनीराय की सहायता के लिए जा रहा था। कालपी (मध्यप्रदेश) के नजदीक इरीच नामक स्थान पर जहर देने के कारण सांगा की मृत्यु हो गयी।
  • SANGA का स्मारक – BASWA (दौसा) ME HAI ।
  • SANGA का दाह संस्कार – माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) ME HUA ।
  • सांगा की छतरी – माण्डलगढ़ भीलवाड़ा, जो अशोक परमार ने बनवाई थी ।
  • बाबर के अनुसार मालवा, गुजरात व दिल्ली सुल्तानों में एक भी ऐसा नहीं जो अकेला सांगा को हरा सके।

खानवा युद्ध के परिणाम :-

(1) बाबर भारत में स्थायी हो गया।
(2) सांगा के नेतृत्व में राजपूतों का जो संगठन बना वह टूट गया।
(3) सांगा की सीमा/पिलियाखार नदी तक थी जो अब बसवा व काणौता क्षेत्र तक सीमित हो गया।

रतनसिंह (1528-1531 ई. ) –

  • सांगा की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रतनसिंह मेवाड़ का शासक बना। सांगा की हाड़ी रानी कर्णावती (विक्रमादित्य और उदयसिंह की माँ) ने रतनसिंह के विरुद्ध बाबर से सहायता लेने का प्रयास किया था।
  • 1531 ई. में बूँदी में आखेट के समय बूँदी का राव सूरजमल और लड़ पड़े तथा दोनों की मृत्यु हो गई।

विक्रमादित्य (1531-1536 ई.) –

बहादुर शाह का प्रथम आक्रमण 1534

  • गुजरात के बहादुर शाह ने रूमी खाँ के नेतृत्व में चित्तौड़ को घेर लिया। राजमाता कर्मावती ने रणथम्भौर की जागीर देकर इसे वापस भेज दिया।

बहादुर शाह का दूसरा आक्रमण/चित्तौड़ का द्वितीय साका 1535 :-

  • बहादुर शाह ने दोबारा चित्तौड़ को घेर लिया। कर्मावती ने हुमायूँ को राखी भेजी। हुमायूँ सांरगपुर, उत्तर प्रदेश में रुक गया।
  • कर्मावती ने विक्रमादित्य व उदयसिंह को ननिहाल बूंदी भेज दिया।
  • देवलिया- प्रतापगढ़ के बाघसिंह के नेतृत्व में केसरिया कर्मावती के नेतृत्व में 13000 रानियों ने जौहर किया।
  • चित्तौड़ का दूसरा व सबसे बड़ा साका पूर्ण हुआ।
  • पृथ्वीराज के दासीपुत्र बनवीर ने विक्रमादित्य को मारकर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। उदयसिंह को “पन्नाधाय” ने अपने पुत्र चन्दन का बलिदान देकर उदयसिंह को देवलिया, इसके बाद डूंगरपुर फिर आशा शाह की देखरेख में कुम्भलगढ़ दुर्ग में रखा।
  • पन्नाधाय कमेरी गाँव के गुर्जर जाति से थी।
  • उदयसिंह का राज्यअभिषेक कुम्भलगढ़ में हुआ।

बनवीर (1536-1537 ई.) –

  • 1536 ई. में राणा विक्रमादित्य की हत्या कर कुँवर पृथ्वीराज का अनौरस पुत्र बनवीर मेवाड़ का राणा बन गया।
  • बनवीर ने उदयसिंह की हत्या करने का भी प्रयत्न किया परन्तु पन्ना धाय ने अपने पुत्र चन्दन की कुर्बानी देकर उदयसिंह को कुम्भलगढ़ भेज दिया।
  • उदयसिंह का लालन-पालन कुम्भलगढ़ के किलेदार आशादेवपुरा ने किया था।
  • चित्तौड़ के किले में स्थित तुलजा भवानी के मन्दिर का निर्माण वणवीर ने ही करवाया था।

महाराणा उदयसिंह (1537-1572 ई.)-

  • उदयसिंह का राज्याभिषेक 1537 ई. में कुम्भलगढ़ में सम्पन्न हुआ था।
  • मारवाड़ के राव मालदेव के सहयोग से 1540 ई. में उदयसिंह ने बनवीर को मावली के युद्ध में पराजित कर चित्तौड़ सहित सम्पूर्ण मेवाड़ राज्य पर अधिकार कर लिया।

शेरशाह सूरी से सम्बन्ध-

  • जनवरी, 1544 ई. में शेरशाह सूरी मारवाड़ विजय के बाद चित्तौड़ की ओर बढ़ा परन्तु राणा ने अधीनता स्वीकार कर इस संभावित आक्रमण को टाल दिया। शेरशाह ने ख्वास खाँ को अपने प्रतिनिधि के रूप में चित्तौड़ में नियुक्त कर दिया।

मालदेव से सम्बन्ध-

  • प्रारम्भ में राव मालदेव राणा का सहयोगी था। परन्तु खैरवा के ठाकुर जैत्रसिंह द्वारा अपनी छोटी पुत्री का विवाह, जिससे मालदेव विवाह करना चाहता था, उदयसिंह से करने के कारण मालदेव राणा का विरोधी हो गया।

हरमाड़ा (अजमेर) का युद्ध (24 जून, 1557 ई. ) –

  • इस युद्ध में मालदेव की सहायता से अजमेर के हाजी खाँ पठान ने राणा उदयसिंह को पराजित किया था।

उदयपुर की स्थापना – 1559 में उदयसिंह के पौत्र भवर अमरसिंह का भी जन्म हुआ।

  • 1559 में उदयसागर झील के किनारे उदयपुर की स्थापना हुई।
  • उदयपुर के पुराने महलों को मोती महल कहा जाता है यहाँ पानेडा नामक स्थान पर मेवाड़ महाराणाओं का राजतिलक होता है। राजतिलक उदरी गाँव का भील मुखिया गमेती करता था।

अकबर का आक्रमण 1567-68

कारण :-

1. अकबर ने 1562 में मेड़ता के जयमल पर आक्रमण किया। जयमल उदयसिंह की शरण में आ गया।

  1. गुजरात के बाज बहादुर को उदयसिंह ने शरण दी थी।
  • अकबर के आक्रमण की सूचना उदयसिंह को शक्तिसिंह ने दी थी।
  • अक्टूबर 1567 में अकबर ने चित्तौड़ को घेर लिया उदयसिंह ने राठौड़, फत्ता सिसोदिया, रावतजी चुंडावत, डोडिया सांडा, इसरदास चौहान कल्ला राठौड़ आदि के नेतृत्व में 8,000 राजपूतों को छोड़कर स्वयं पहाड़ियों में निकल गये।
  • अकबर ने “हुसैन कुली खाँ” के नेतृत्व में एक दल उदयसिंह को ढूँढ़ने के लिए भेजा।
  • अकबर ने यहाँ “मोहर मंगरी” नामक टीला बनवाया दुर्ग विजय के लिए अकबर, “साबात” का निर्माण करवाया।

चित्तौड़ का तीसरा व अन्तिम साका :- फरवरी 1568

  • जयमल व फत्ता के नेतृत्व में केसरिया हुआ। फत्ता की पत्नी फूलकवर के नेतृत्व में जौहर हुआ।
  • इसरदास चौहान ने अकबर के हाथी का एक दाँत तोड़ दिया था।

वीर कल्ला राठौड :- चार हाथों वाले देवता ।

  • दुर्ग विजय के बाद यहाँ अकबर ने “कत्ले-ए-आम” करवाया जो अकबर के जीवन का एक कलंक है, अकबर ने दुर्ग “आसफ खाँ’ को सौंप दिया।
  • अकबर ने जयमल-फत्ता की मूर्तियाँ आगरा किले में लगवायी, जो औरंगजेब के समय तोड़ दी गई।
  • वर्तमान में ये मूर्तियाँ- जूनागढ़ दुर्ग बीकानेर के आगे हैं।

नोट – जहांगीर ने आगरा में महाराणा अमरसिंह व महाराणा कर्णसिंह की मूर्ति लगवायी थी।

  • उदयसिंह की मृत्यु – 28 फरवरी 1572 होली के दिन हुई।
  • गोगुन्दा में दाह संस्कार हुआ। गोगुन्दा में दाह संस्कार हुआ। गोगुन्दा में कृष्णदास चूडावत ने तलवार बांधकर महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक कर दिया।
  • महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक – गोगुन्दा में।
  • महाराणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक कुम्भलगढ़ में।
  • शिवाजी व औरंगजेब का भी दो बार राज्याभिषेक हुआ था।
  • जगमाल को राजगद्दी से हटाकर कुम्भलगढ़ दुर्ग में दुबारा महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ। इस राज्याभिषेक में मारवाड़ से चन्द्रसेन भी आया था – इस घटना को महलों की क्रान्ति कहा जाता है।
  • जगमाल अकबर की शरण में चला गया। अकबर ने जगमाल को जहाजपुर (भीलवाड़ा) की जागीर दी।

जगमाल – राणा उदयसिंह ने भटियाणी रानी धीर बाई के प्रभाव में आकर उसके पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था जबकि ज्येष्ठता के आधार पर यह प्रताप का अधिकार था। परन्तु प्रताप के शासक बनने पर वह अकबर की सेवा में चला गया। अकबर ने उसे जहाजपुर परगना जागीर में दे दिया। बाद में उसे आधा सिरोही राज्य दिया गया। सिरोही के राव सुरताण के साथ दत्ताड़ी के युद्ध (1583 ई.) में जगमाल की मृत्यु हो गई।

महाराणा प्रताप सिंह [1572-97] :-

जन्म :- 9 मई 1540 [ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया] रविवार कुम्भलगढ़ दुर्ग के बादल महल में।

नोट- प्रताप का जन्म – 1540
चन्द्रसेन का जन्म – 1541
रायसिंह का जन्म – 1541
अकबर का जन्म – 1542- रविवार

पिता :- उदयसिंह
माता :- जैवन्ता/जयवन्ता बाई [राजस्थान की जीजाबाई ] [पाली के अखेराज सोनगरा की पुत्री ]
पत्नी :- अजबदे पंवार
पुत्र :- अमरसिंह
बचपन का नाम :- कीका

अकबर के शान्ति अभियान :-

(1) जलाल खाँ कोर्ची :- 1572
(2) मानसिंह :- 1573 मई-जून
(3) भगवन्तदास 1573
4) टोडरमल 1573 नवम्बर-दिसम्बर

युद्ध के बाद के अभियान :-

(5) स्वयं अकबर 1576
(6) शाहबाज खाँ 1578-80
(7) रहीम 1580
(8) जगन्नाथ कच्छवाहा 1584

हल्दीघाटी का युद्ध :- 18/21 जून 1576 [ राजसमन्द ]

उपनाम :-

(1) गोगुन्दा का युद्ध – बँदायुनी ने कहा।
(2) खमनौर का युद्ध – अबुल फजल ने कहा।
(3) मेवाड़ की थर्मोपोली – टॉड ने कहा।
(4) बादशाह बाग का युद्ध – आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव
(5) रक्तलाई का युद्ध
(6) बनास का युद्ध ।
(7) हाथियों का युद्ध ।

  • अकबर ने युद्ध की योजना मैग्जीन दुर्ग/अकबर का दौलतखाना (अजमेर) में बनाई। मुख्य सेनापति मानसिंह व अन्य मुख्य सेनापति आसफ खाँ को बनाया ।
  • यहाँ से मानसिंह ने अपना पड़ाव माण्डलगढ़ में डाला। यहाँ 2 माह तक रुका। इसके बाद मोलेला गाँव [राजसमन्द] व बाद में खमनौर राजसमन्द में अपना पड़ाव डाला।
  • मानसिंह की हरावल सेना का नेतृत्व :- सैयद खाँ, आसफ खाँ, जगन्नाथ कच्छवाहा ने किया।
  • चन्दावर सेना का नेतृत्व :- मिहत्तर खाँ ने किया।
  • मिहत्तर खाँ ने बादशाह के आने की झूठी खबर फैलायी ।
  • मानसिंह के साथ इतिहासकार “बदाँयूनी” (मुखबन्तु उत- तवारीख) भी आया था।
  • मुगलों के हाथियों के बाद :- गजराज, राजमुक्ता, रणमन्दिर, मर्दाना “मर्दाना ” हाथी पर मानसिंह सवार था ।
  • महाराणा प्रताप की तैयारियाँ :- महाराण ने युद्ध की योजना कुम्भलगढ़ दुर्ग में बनाई फिर गोगुन्दा में अपना पड़ाव डाला।
  • महाराणा की हरावल सेना का नेतृव हाकिम खाँ सूरी ने किया। ये महाराणा के एकमात्र मुस्लिम सेनापति है।
    नोट- सांगा का एकमात्र मुस्लिम सेनापति :- हसन खाँ मेवाती
  • हाकिम खाँ सूरी का मकबरा खमनौर राजसमन्द में हैं
  • महाराणा की चन्दावर सेना का नेतृत्व भील राणा पूँजा ने किया। पूँजा एकमात्र भील है जिसे प्रताप ने “राणा” लगाने की इजाजत दी थी।
  • मेवाड़ के सिक्कों में एक तरफ महाराणा का चित्र व दूसरी तरफ पूँजा का चित्र है। पूँजा पुनखा गाँव (उदयपुर) से था।

महाराणा प्रताप के सहयोगी :-

(1) भामाशाह
(2) रामशाह तवँर
(3) रामदास तवैर
(4) जगन्नाथ
(5) केशव
(6) कृष्ण दास चूडावत

महाराणा प्रताप के हाथियों के नाम :-

  • लूणा, रामप्रसाद (अकबर ने इसका नाम – पीरप्रसाद कर दिया)
  • घोड़े का नाम :- चेतक (काठियावाड़ी नस्ल का घोड़ा) इसका स्मारक बलीचा (राजसमन्द) में है।
  • मेवाड़ ख्यातो के अनुसार महाराणा के पास 20,000 व मानसिंह के पास 80 हजार सेना थी।
  • नैणसी के अनुसार महाराणा के पास 9-10 हजार सैनिक मानसिंह के पास 40 हजार सेना थी।
  • बँदायूनी के अनुसार महाराणा के पास 3 हजार व मानसिंह के पास 5 हजार सेना थी।
  • महाराणा का राजचिन्ह झाला बिदा/झाला सज्जा/झाला मन्त्रा ने धारण किया।
  • युद्ध के बाद महाराणा कोल्यार गाँव [उदयपुर] पहुँचे। यहाँ घायल सैनिकों का उपचार किया। आवरगढ़ को अस्थायी राजधानी बनाई।
  • इसके बाद आगे के युद्धों का संचालन कुम्भलगढ़ से किया। गोपीनाथ शर्मा के अनुसार हल्दीघाटी का युद्ध अनिर्णीत युद्ध था ।

नवीन शोध NCERT के अनुसार महाराणा प्रताप की विजय हुई।

  • अकबर का आगमन :- अकबर अजमेर से मेवाड की ओर रवाना हुआ, गोगुन्दा को जीत लिया फिर हल्दीघाटी को देखनें गया तत्पश्चात्उ दयपुर को जीतकर इसका नाम मुम्मदाबाद कर दिया।
  • अकबर ने उदयपुर फकरुद्दीन व जगन्नाथ कच्छवाहा को सौंपा। इसके बाद डूंगरपुर – बाँसवाड़ा की ओर गया। बाँसवाड़ा का शासक प्रतापसिंह व डूंगरपुर शासक आसकरण ने अधीनता स्वीकार की।

शाहबाज खाँ का आक्रमण (1578-80) :-

शाहबाज खाँ ने मेवाड़ पर तीन बार आक्रमण किया।

प्रथम आक्रमण :- कुम्भलगढ़ के नजदीक केलवाड़ा में शिविर डाला। अप्रैल 1578 में शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ को जीत लिया। शाहबाज खाँ ने दुर्ग गाजी खाँ को सौंपा।

  • कुम्भलगढ़ के बाद शाहबाज खाँ गोगुन्दा होते हुए उदयपुर पहुँचा। महाराणा कुम्भलगढ़ से निकलकर ईडर [गुजरात] होते हुए चुलीया गाँव पहुँचे।
  • भामाशाह से मुलाकात :- चुलीया में भामाशाह ने महाराणा को 20 हजार सोने की अशर्फियाँ व 25 लाख रु दिये। ये इतनी बड़ी धनराशि थी कि इससे महाराणा 25 हजार सैनिकों को 12 वर्ष तक रख सकते थे।
  • भामाशाह को “मेवाड का उद्धारक” व टॉड ने इन्हें “मेवाड़ का कर्ण” कहा।

शाहबाज खाँ का द्वितीय आक्रमण :- शाहबाज खाँ 1578 में दुबारा फिर आया।

  • शाहबाज खाँ का तृतीय आक्रमण :- 1579 इस समय महाराणा की ओर चले गये। आबू (सिरोही) के नजदीक लोयाना के राव दुल्हा के यहाँ रहे। दुल्हा को राणा लगाने की इजाजत दी थी।

रहीम जी का आगमन :- 1580

शेरपुरा की घटना :- शेरपुरा से रहीम जी के परिवार को कुँवर अमरसिंह ने गिरफ्तार कर लिया। महाराणा के कहने पर परिवार को छोड़ दिया।

मुगलों की मुख्य चौकिया :-
(1) दिवेर [ राजसमन्द ]
(2) देवारी [उदयपुर]
(3) देसुरी [पाली ]
(4) देवल [ डूंगरपुर]

दिवेर का युद्ध अक्टूबर 1582 :-

विजयादशमी के दिन “सुल्तान खाँ” को मारकर दिवेर चौकी को जीत लिया। यहीं से महाराणा के विजय की शुरुआत मानी जाती हैं। दिवेर युद्ध को महाराणा प्रताप के “गौरव का प्रतीक” कहा जाता है।

  • टॉड ने इसे “मेवाड़ का मैराथन” कहा।
  • जगन्नाथ कच्छवाहा का आगमन 1584 :- प्रताप के विरुद्ध अकबर का अन्तिम अभियान।
  • चावण्ड राजधानी 1585 :- लूणा चावण्डीया/राठौड़ को हराकर महाराणा ने अन्तिम राजधानी चावण्ड को बनायी। चामुण्डा माता का मन्दिर बनवाया। “यह चावण्ड राजधानी” 1615 तक रहेगी।
  • महाराणा ने मालपुरा (टोंक) कस्बे को लूटा था।
  • 19 जनवरी 1597 महाराणा प्रताप की धनुष की प्रत्यंचा खिंचते समय आँतों में खिंचाव के कारण मृत्यु हुई
  • इनका दाह संस्कार बाण्डोली (उदयपुर) में हुआ।
  • यहाँ केजड़ बाँध के नजदीक महाराणा प्रताप की 8 खम्भों की छतरी है- बाण्डोली (उदयपुर) केजड बाँध के निकट महाराणा

प्रताप के स्मारक :-

(1) हल्दीघाटी – राजसमंद
(2) फतेहसागर झील उदयपुर
(3) पुष्कर अजमेर

महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन निम्न पुरस्कार देता है:-

(1) महाराणा प्रताप पुरस्कार :- खेल के क्षेत्र में ।
(2) हल्दीघाटी पुरस्कार :- पत्रकारिता के क्षेत्र में ।
(3) हाकिम खाँ सूरी पुरस्कार :- हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द के लिए।
(4) राणा पूँजा पुरस्कार :- जनजाति उत्थान के लिए।
(5) पन्नाधाय पुरस्कार :- बलिदान के क्षेत्र में ।
(6) उदयसिंह पुरस्कार : पर्यावरण के क्षेत्र में ।

कन्हैयालाल सेठीया :-

जन्म :- सुजानगढ़ चूरू
रचनाएं :-
(1) पातल-पीथल – इसमे पातल महाराणा प्रताप व पीथल पृथ्वीराज राठौड़ है
(2) धरती धौंरा री
(3) मीझंर (खेजड़ी के मीझर लगते हैं)
(4) कू-कू
(5) धर मंझला धर ऊँचा।
(6) आज हिमालय बोल उठा।
(7) लीलटांस

दुरसा आढ़ा :- इसने विरुद्ध छतहरी व किरतार बावनी ग्रन्थ लिखा । ये अकबर के दरबार में था।

अमरसिंह प्रथम (1597-1620 ई.) –

  • अमरसिंह का राज्याभिषेक 19 जनवरी, 1597 ई. को चावण्ड में हुआ था।
  • अमरसिंह के शासनकाल में मेवाड़ पर प्रथम मुगल अभियान बादशाह अकबर के समय 1599 ई. में सलीम (जहाँगीर) के नेतृत्व में हुआ।

जहाँगीर (1605-1627 ई.) द्वारा भेजे गए मेवाड़ अभियान-

  1. शाहजादा परवेज-1605 ई.
  2. महाबत खाँ-1608 ई.
  3. अब्दुल्ला खाँ- 1609 ई.
  4. राजा बसु- 1611 ई.
  5. मिर्जा अजीज कोका-1613 ई.
  6. शाहजादा खुर्रम-1613-1615 ई.

मेवाड़-मुगल सन्धि (5 फरवरी, 1615 ई.)-

अन्ततः 1615 ई. में राणा अमरसिंह ने युवराज कर्ण और अन्य सरदारों की सलाह पर शाहजादा खुर्रम से सन्धि कर मुगल अधीनता स्वीकार कर ली।

सन्धि की शर्तें-

  1. राणा ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली।
  2. चित्तौड़ के किले की मरम्मत व किलेबन्दी नहीं करने की शर्त पर चित्तौड़गढ़ सहित सम्पूर्ण मेवाड़ राज्य राणा को लौटा दिया गया।
  3. राणा को व्यक्तिगत रूप से मुगल दरबार में उपस्थित होने से छूट दे दी गई परन्तु युवराज कर्ण को 1000 घुड़सवारों के साथ मुगल सेवा में उपस्थितहोना होगा। इसके बदले उसे 5000/5000 का मनसब दिया गया।
  4. वैवाहिक सम्बन्ध बनाने की बाध्यता नहीं ।
  • इस सन्धि से राणा अमरसिंह को इतनी आत्मग्लानि हुई कि उन्होंने सम्पूर्ण राजकार्य युवराज कर्ण को सौंपकर अपना शेष जीवन नौचोकी नामक स्थान पर बिताया।
  • 26 जनवरी, 1620 ई. को अमरसिंह की मृत्यु हो गई। उनका अन्तिम संस्कार आहड़ में किया जहाँ उनकी समाधि बनी हुई है। आहड़ में मेवाड़ के महाराणाओं की यह प्रथम छतरी है। इसके बाद सभी मेवाड़ महाराणाओं की समाधियाँ आहड़ में ही हैं।

कर्णसिंह (1620-1628 ई. ) –

  • यह मेवाड़ का पहला राणा था जो शासक बनने से पूर्व मुगल दरबार में रह चुका था एवं जिसके लिए राणा की पदवी मुगल दरबार से भेजी गई।
  • जब खुर्रम (शाहजहाँ) ने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह किया (1622- 23 ई.) तो कर्णसिंह ने उसे पिछोला झील के जगमन्दिर के महलों में ठहराया था। इस
    प्रकार कर्णसिंह प्रथम मेवाड़ी शासक था जिसने मुगलों के आन्तरिक मामलों में रुचि ली।
  • कर्णसिंह ने उदयपुर में दिलखुश महल और कर्ण विलास महलों का निर्माण करवाया। पिछोला झील के जगमन्दिर महलों का निर्माण कर्णसिंह ने ही प्रारम्भ
    करवाया था।

जगतसिंह प्रथम (1628-1652 ई.)-

  • महाराणा जगतसिंह प्रथम ने 1615 ई. की मुगल-मेवाड़ सन्धि के विपरीत चित्तौड़ के किले की मरम्मत प्रारम्भ करवाकर बादशाह शाहजहाँ से मतभेद उत्पन्न
    कर लिए थे।

शाहपुरा रियासत की स्थापना (1631 ई.)-

बादशाह शाहजहाँ ने जगतसिंह के चचेरे भाई सुजानसिंह को फूलिया परगना दिया। सुजानसिंह ने इसे आबाद कर शाहजहाँ के नाम पर शाहपुरा बसाया। 1631 ई. में शाहजहाँ ने शाहपुरा को पृथक रियासत के रूप में मान्यता प्रदान कर दी।

निर्माण कार्य-

  1. जगमन्दिर ( उदयपुर ) –
  • कर्णसिंह द्वारा प्रारम्भ किये गये पिछोला झील के जगमन्दिर के महलों का निर्माण जगतसिंह प्रथम ने पूर्ण करवाया।
  1. जगन्नाथराय (जगदीश ) मन्दिर –
  • शिल्पकला की दृष्टि से उत्कृष्ट उदयपुर के जगदीश मन्दिर का निर्माण महाराणा जगतसिंह प्रथम ने 1651 ई. में करवाया था। इस मन्दिर में जगन्नाथराय प्रशस्ति उत्कीर्ण है जिसकी रचना कृष्णभट्ट ने की थी।
  1. धाय का मन्दिर (उदयपुर) –
  • जगतसिंह की धायमाँ नौनूबाई ने इस मन्दिर का निर्माण करवाया था।
  1. मोहनमन्दिर और रूपसागर तालाब
  2. उदयसागर के महल।

राजसिंह [1652 – 80]

  • चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत पूर्ण करवाई।
  • शाहजहाँ ने सादुल्ला खाँ के नेतृत्व मे सेना भेजी व जितना निर्माण करवाया उसे तोड़ दिया।
  • राजसिंह ने टीका दौड़ का आयोजन करवाया व “विजयकटकातु” की उपाधि धारण की।
  • औरंगजेब ने बादशाह बनते ही राजसिंह को 6000/6000 का मनसब दिया और बदनौर व माण्डलगढ़ परगने जागीर में दिये तथा डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और ग्यासपुर (देवलिया-प्रतापगढ़) रियासतों को मेवाड़ में मिला दिया।

राजसिंह व औरंगजेब :-

(1) मन्दिर तोड़ो अभियान 1669 :- वृंदावन से कुछ गुसाई/गोस्वामी श्री नाथ जी व द्वारिकाधीश की मूर्तियाँ लेकर राजसिंह के पास आये। राजसिंह ने श्री नाथ जी की मूर्ति – नाथद्वारा में व द्वारिकाधीश की मूर्ति राजसमन्द झील की पाल पर लगाई (कांकरोली)।
(2) जाजिया कर 1679 :- भारत में सर्वप्रथम जाजिसा कर सिन्ध क्षेत्र में “मोहम्मद बिन कासिम” ने लगाया था।

  • सर्वप्रथम ब्राह्मणों पर “जाजिया कर” फिरोज तुगलक ने लगाया।
  • कश्मीर में जाजिया कर जैलालुबुद्दीन ने बन्द किया था जैनालुबुद्दीन को ‘कश्मीर का अकबर” कहते हैं।
  • 1564 में अकबर ने जाजिया कर ‘बन्द’ कर दिया था। औरंगजेब ने पुनः चालू किया व राजसिंह ने इसका विरोध किया।
  • कर्नल टॉड, डॉ. ओझा आदि के अनुसार राजसिंह ने जजिया के विरोध में बादशाह को पत्र भेजा था। (सर जदुनाथ सरकार के अनुसार यह पत्र शिवाजी द्वारा भेजा गया था)।

चारुमती विवाद :- किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमती से औरंगजेब विवाह करना चाहता था, राजसिंह ने चारुमती से विवाह कर लिया।
हाड़ी रानी :- बून्दी के संग्राम सिंह की पुत्री, वास्तविक नाम – सहल कँवर । सहल कँवर का विवाह सलुम्बर के रतनसिंह चूण्डावत से। हाडी रानी का स्मारक सलुम्बर में हैं।

  • हाड़ी रानी पर “सैनानी” कविता “मेघराज मुकुल” ने लिखी “चूण्डावत मांगी सैनाणी, सिर काट दे दिया क्षत्राणी’
  • राजसमन्द/राजसमुद्र झील :- गोमती नदी पर राजसिंह ने बनाई, इसे “नौ चौकी झील” कहते हैं।
  • इसके किनारे बिना पति के सती हुई – “घेवर माता” का मन्दिर है।
  • राजप्रशस्ति :- राजसिंह ने राजसमन्द झील पर 25 शिलालेखों में संस्कृत भाषा में रणछोड़ भट्ट से राजप्रशस्ति लिखवाई। इसमे मेवाड़ का इतिहास है। यह “विश्व की सबसे बड़ी प्रशस्ति” इसका शेष इतिहास अमरकाव्य वंशावली, रणछोड़ भट्ट ने लिखा।
  • राज प्रशस्ति में मीणा जाति का भी उल्लेख है।
    नोट – राय प्रशस्ति- जूनागढ़ दुर्ग मे

सांस्कृतिक योगदान-

  1. अम्बामाता मन्दिर – उदयपुर
  2. श्रीनाथ मन्दिर – सिहाड़ (नाथद्वारा), 1669 ई.
  3. द्वारकाधीश मन्दिर – कांकरौली, 1671 ई.
  4. जया बावड़ी या त्रिमुखी बावड़ी- देवारी, 1675 ई.- इस बावड़ी का निर्माण रानी रामरसदे ने जया बावड़ी नाम से करवाया था। त्रिमुखी बावड़ी की प्रशस्ति KI RACHNA रणछोड़ भट्ट NE KI THI ।
  5. जनासागर तालाब – बड़ीगाँव (उदयपुर), 1677 ई.- जनासागर तालाब का निर्माण राणा राजसिंह ने अपनी माता जनादे (मेड़तिया राठौड़ राजसिंह की पुत्री) की स्मृति में करवाया था। जनासागर प्रशस्ति की रचना कृष्णभट्ट के पुत्र लक्ष्मीनाथ ने की थी।
  6. राजसमन्द झील – राणा राजसिंह ने अकाल राहत कार्य के दौरान 1662 ई. से 1676 ई. के मध्य गोमती नदी पर बाँध बनवाकर राजसमन्द झील का निर्माण
    करवाया तथा झील के किनारे राजनगर कस्बा बसाया।
  7. राजप्रशस्ति (1676 ई.)- राजसमन्द झील का उत्तरी भाग नौचोकी नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ काले संगमरमर से निर्मित 25 शिलाखण्डों पर संस्कृत पद्य भाषा में राजप्रशस्ति महाकाव्य उत्कीर्ण है। इसे भारत का सबसे बड़ा शिलालेख माना जाता है। राजप्रशस्ति की रचना तैलंग ब्राह्मण रणछोड़ भट्ट ने की थी।

साहित्यिक रचनाएँ-

  • रणछोड़ भट्ट- अमरकाव्य वंशावली
  • किशोरदास-राजप्रकाश
  • सदाशिव- राजरत्नाकर।

जयसिंह (1680-1698 ई.)-

  • इसका राज्याभिषेक कुरजा (राजसमन्द) में हुआ। 24 जून, 1681 ई. को मुगल बादशाह औरंगजेब से सन्धि कर मारवाड़ के अजीतसिंह को सहयोग देना बन्द कर दिया।
  • जयसिंह ने जजिया कर के बदले पुर. माण्डल और बदनौर परगने मुगलों को सौंप दिये। इसी समय डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और देवलिया- प्रतापगढ़ को मेवाड़ से अलग कर दिया गया।

जयसमन्द झील (1687-1691 ई.)-

महाराणा जयसिंह ने जयसमन्द झील का निर्माण करवाया। इसमें गोमती, झामरी, रूपारेल व बगार नदियों का पानी एकत्रित होता है। झील में सात टापू हैं जिन पर भील-मीणा लोग निवास करते हैं। सबसे बड़ा टापू बाबा का मगरा और सबसे छोटा टापू पाइरी कहलाता है।

अमरसिंह द्वितीय (1698-1710 ई.)-

  • देबारी समझौता (1708 ई.)- यह समझौता अमरसिंह द्वितीय और सवाई जयसिंह के मध्य हुआ। अमरसिंह ने अपनी पुत्री चन्द्रकुँवरी का विवाह सवाई जयसिंह से इस शर्त पर कर दिया कि चन्द्रकुँवरी से उत्पन्न पुत्र ही जयसिंह का उत्तराधिकारी बनेगा। इस समझौते के अनुसार अमरसिंह ने सवाई जयसिंह को आमेर राज्य पुनः प्राप्त KARNE ME मदद KI ।
  • इन्होंने मेवाड़ में सामन्त व जागीर व्यवस्था को पुनः व्यवस्थित किया। राणा द्वारा जनता से सैन्य खर्च के लिए बलपूर्वक धन वसूलने के कारण दो हजार भाटों ने आत्महत्या कर ली।
  • अमरसिंह II ने प्रशासन में सुधार के लिए विभागों का बँटवारा किया प्रथम श्रेणी के 16 सरदार। द्वितीय श्रेणी के 32 सरदार नियुक्ति किये उनकी जागीरें नियुक्ति की। प्रथम श्रेणी के सरदारों को “उमराव” कहा जाता था।
  • अमरसिंह ने अमर विलास महल बनवाया जिसे वर्तमान में बाड़ी महल कहते हैं।

संग्रामसिंह द्वितीय (1710-1734 ई.)-

  • संग्रामसिंह के समय मई, 1711 ई. ME मराठों NE मन्दसौर KE PAS मेवाड़ RAJYA KE अधीनस्थ क्षेत्र SE प्रथम BAR धन VASHUL KIYA ।
  • हुरड़ा सम्मेलन की रूपरेखा महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने ही तैयार की थी।
  • उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी और सीसारमा (उदयपुर) में वैद्यनाथ मन्दिर का निर्माण इनके समय ही हुआ था।

जगतसिंह द्वितीय (1734-1751 ई.)-

  • हुरड़ा सम्मेलन (17 जुलाई, 1734 ई.) की अध्यक्षता महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की थी।
  • पेशवा बाजीराव प्रथम जनवरी, 1736 ई. में उदयपुर पहुँचे, इसी समय मेवाड़ राज्य ने प्रथम बार मराठों को कर देने का समझौता किया था।
  • महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने पिछोला झील में जगतनिवास महल का निर्माण करवाया। इन्हीं के दरबारी नन्दराम ने जगतविलास ग्रन्थ की रचना की थी।

अरिसिंह (अड़सी) (1761-1773 ई.)-

महादजी सिंधिया ने मेवाड़ के उत्तराधिकार संघर्ष (अरिसिंह और रतनसिंह के मध्य) में हस्तक्षेप करते हुए उज्जैन के निकट क्षिप्रा के युद्ध (16 जनवरी, 1769 ई.) में अरिसिंह को पराजित किया।

भीमसिंह (1778-1823 ई. ) –

कृष्णाकुमारी विवाद-

  • कृष्णाकुमारी महाराणा भीमसिंह की पुत्री थी जिसका विवाह जोधपुर के महाराजा भीमसिंह से तय हुआ परन्तु भीमसिंह की मृत्यु के कारण यह विवाह जयपुर के महाराजा जगतसिंह से तय कर दिया गया।
  • जोधपुर के नये महाराजा मानसिंह ने इस मामले में हस्तक्षेप प्रारम्भ कर दिया परिणामत: जयपुर के जगतसिंह ने अमीरखों पिण्डारी की सहायता से गिंगोली के युद्ध (1807 ई.) में जोधपुर के महाराजा मानसिंह को पराजित किया।
  • आमिर खान पिंडारी के दबाव के कारण महाराणा भीमसिंह ने 21 जुलाई 1810 ईसवी को कृष्ण कुमारी को जहर देकर मरवा दिया।
  • महाराणा भीमसिंह ने 22 जनवरी 1818 को अंग्रेजों से संधि कर ली।
  • फरवरी 1818 में कर्नल टॉड उदयपुर के पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किए गए।
  • भीम सिंह ने पिछोला झील के पास नया महल बनवाया भीम सिंह के दरबारी आढा किशन ने भीम विलास ग्रंथ लिखा।

जवान सिंह [1828 – 1838]

● जवान सिंह के समय नेपाल के महाराजा राजेन्द्र विकास साह ने अपने पूर्वजों के रीति-रिवाज जानने के लिए नेपाल से कुछ व्यक्तियों को उदयपुर भेजा।
● जवान सिंह ने पिछोला झील के पास जल निवास बनवाया।

सरदार सिंह [1838-42|

● इसके समय 1841 में मेवाड़ भील कोर (MBCJ की स्थापना हुई थी।

स्वरूपसिंह (1842-1861 ई. ) –

  • महाराणा स्वरूपसिंह ने स्वरूपशाही सिक्के जारी किये। मेवाड़ राज्य में डाकन प्रथा (1853 ई.), सती प्रथा (1861 ई.) और समाधि प्रथा पर प्रतिबंध स्वरूपसिंह के समय ही लगाया गया था।
  • स्वरूपसिंह की मृत्यु पर इनकी पासवान ऐंजावाई सती हो गई। यह मेवाड़ महाराणाओं के साथ सती होने की अंतिम घटना थी।
  • स्वरूप सिंह ने विजय स्तम्भ 9वीं मंजिल की मरम्मत करवायी।
  • पिछोला झील का जीर्णोद्धार करवाया।

शम्भु सिंह (1861-74)

  • इसने शम्भु निवास महल बनवाया। मेव कॉलेज में पढ़ने वाले उदयपुर के विद्यार्थियों के लिए अजमेर में “उदयपुर हाऊस” बनवाया।
  • वीर विनोद :- वीर विनोद का लेखन 1871 में प्रारम्भ हुआ। वीर विनोद “श्यामलदास” ने लिखा था।
  • श्यामलदास शम्भु सिंह, सज्जन सिंह, फतेह सिंह के दरबार में रहे थे।

वीर विनोद के 4 भाग हैं।

  • श्यामलदास का जन्म [ ढोकलीया गाँव भीलवाड़ा]- 1836 में हुआ। वीर विनोद के लेखन पर फतेह सिंह ने रोक लगा दी थी।
  • श्यामलदास को कविराज, महामहोपाध्याय भी कहा जाता है।

सज्जनसिंह (1874-1884 ई. ) –

  • महाराणा सज्जनसिंह ने सज्जनगढ़ के दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसे उदयपुर का ‘मुकुटमणि’ भी कहा जाता है।
  • सज्जनसिंह ने श्यामलदास को ‘कविराज’ की उपाधि प्रदान की थी।
  • सज्जनसिंह के यहाँ स्वामी दयानन्द सरस्वती आये थे यहाँ सरस्वती जी ने “परोपकारीणी सभा” की स्थापना की थी जिसका अध्यक्ष सज्जनसिंह को बनाया।
  • [1883]-सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ का कुछ भाग लिया।
  • सज्जन सिंह के समय राजस्थान की प्रथम साप्ताहिक पत्रिका “सजन कीर्ति सुधाकर” प्रारम्भ हुई।

फतहसिंह (1884-1921 ई.)-

  • फतेह सागर झील बनवाई इसकी नींव ड्यूक कनॉट ने रखी। इसलिये इसे “कनॉट बाँध” भी कहते हैं।
  • चेतावनी रा चूंगटिया- केसरी सिंह बारहठ
  • महाराणा फतेह सिंह एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण में 1903 में दिल्ली के दरबार में जा रहे थे। केसरी सिंह बारहठ (शाहपुरा – भीलवाड़ा) ने “डिंगल भाषा” में “13 सोरठे ” गोपाल सिंह खेरवा के हाथों फतेह सिंह के पास भिजवाये।
  • फतेह सिंह इन्हें पढ़कर दिल्ली दरबार में नहीं गया।
  • फतेह सिंह ने लॉर्ड मिंटो के उदयपुर आगमन पर मिंटो दरबार हॉल बनवाया।
  • फतेह सिंह के समय प्रिंस वेल्स उदयपुर आया था
  • फतेह सिंह ने सज्जनगढ़ दुर्ग पूर्ण करवाया
  • बिजोलिया किसान आंदोलन व छप्पनिया अकाल के समय मेवाड़ का महाराणा f एस था ।

महाराणा भूपाल सिंह [1921 – 1948 ]

आजादी व एकीकरण के समय मेवाड़ का महाराणा।

वागड़ (डूंगरपुर) के गुहिल

सामन्तसिंह (1178-1192 ई.)-

  • वागड़ के गुहिल वंश का संस्थापक सामन्तसिंह पहले मेवाड़ का शासक था परन्तु चौहान कीतु द्वारा मेवाड़ से निकालने के बाद इसने वागड़ में अपना राज्य स्थापित किया।
  • सामन्तसिंह ने बड़ौदा को राजधानी बनाया। वह तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की ओर से लड़ता हुआ मारा गया।

वीरसिंह –

  • वीरसिंह ने भील मुखिया ड्रॅगरिया को मारकर इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।

डूंगरसिंह-

  • डूंगरपुर नगर बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया।

गोपीनाथ (1424-1448 ई. ) –

  • गुजरात के अहमदशाह ने 1433 ई. में वागड़ राज्य पर आक्रमण कर गोपीनाथ को अपने अधीन कर लिया था परन्तु गोपीनाथ ने बाद में राणा कुम्भा की अधीनता स्वीकार कर ली।

उदयसिंह ( 1497-1527 ई. ) –

  • महारावल उदयसिंह ने अपने जीवनकाल में ही अपना राज्य दो भागों में बाँट दिया था-पश्चिमी भाग (डूंगरपुर) ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज को तथा पूर्वी भाग (बाँसवाड़ा) दूसरे पुत्र जगमाल को दे दिया।
  • उदयसिंह खानवा के युद्ध (1527 ई.) में राणा सांगा की ओर से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ था।

आसकरण (1549-1580 ई.)-

  • पृथ्वीराज के उत्तराधिकारी आसकरण ने मारवाड के राव चन्द्रसेन को शरण दी थी। इसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली परन्तु मुगल दरबार में नहीं गया।
  • आसकरण ने सोम व माही नदियों के संगम पर वेणेश्वर शिवालय तथा डूंगरपुर में चतुर्भुजजी के मन्दिर का निर्माण करवाया था।

जसवन्तसिंह द्वितीय (1806-1846 ई.)-

  • 1818 ई. में अंग्रेजों से सन्धि ।

बाँसवाड़ा के गुहिल

जगमाल (1518-1545 ई. ) –

  • वागड़ (डूंगरपुर) के उदयसिंह के पुत्र जगमाल ने भीलों को पराजित कर बाँसवाड़ा क्षेत्र पर अधिकार किया था। बाँसवाड़ा बंसिया अथवा बिशना भील ने बसाया था।

प्रतापसिंह (1550-1579 ई. ) –

  • प्रतापसिंह ने 1576 ई में अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
  • 1615 ई. की मुगल-मेवाड़ सन्धि द्वारा बाँसवाड़ा रियासत को मेवाड़ में मिला दिया गया था परन्तु समरसिंह ने जहाँगीर से अपना राज्य वापस प्राप्त कर लिया।
  • औरंगजेब ने राज्याभिषेक के समय बाँसवाड़ा को पुनः मेवाड़ में मिला दिया गया परन्तु 1681 ई. की मुगल-मेवाड़ सन्धि द्वारा बाँसवाड़ा रियासत को मेवाड़ से अलग कर कुशलसिंह को शासक बना दिया।

उम्मेदसिंह (1816-1819 ई.)-

  • 1818 ई. में अंग्रेजों से सन्धि ।

देवलिया-प्रतापगढ़

सूरजमल (1473-1530 ई. ) –

  • राणा मोकल के पौत्र और खमकरण के पुत्र सूरजमल ने 1473 ई. में भीलों को पराजित कर देवलिया राज्य की स्थापना की।
  • इस राज्य का देवलिया नाम वहाँ के भील मुखिया की विधवा के नाम पर पड़ा था। सूरजमल ने ग्यासपुर को राजधानी बनाया।

बाघसिंह (1530-1534 ई. ) –

  • यह मेवाड़ के दूसरे साके के समय (1534 ई.) चितौड़ की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।

रावत विक्रमसिंह (1552-1578 ई. ) –

  • इसने मीणों को पराजित कर कांठल क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। विक्रमसिंह को देवलिया-प्रतापगढ़ राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
  • 1615 ई. की मुगल-मेवाड़ सन्धि द्वारा देवलिया राज्य को मेवाड़ में मिला दिया गया परन्तु शाहजहाँ ने मेवाड़ के राणा जगतसिंह प्रथम से नाराजगी के कारण 1631 ई. में हरिसिंह को शासक मानकर देवलिया- प्रतापगढ़ को पृथक रियासत के रूप में मान्यता प्रदान कर दी।

प्रतापसिंह (1676-1708 ई.)-

  • प्रतापसिंह ने 1698 ई. में प्रतापगढ़ नगर की स्थापना कर इसे राजधानी बनाया। अब से देवलिया राज्य प्रतापगढ़ राज्य कहलाया।

Read More….Current affairs 2022 | करंट अफेयर्स LDC, RAS

Leave a Comment