RAJASTHAN KI PRACHEEN SABHYATAYEN | राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ |
कालीबंगा (हनुमानगढ़ ) – ‘कालीबंगा’ का शाब्दिक अर्थ ‘ काली चूड़ियाँ होता है।
- इस सभ्यता का विकास सरस्वती और दृपद्वति नदियों की घाटी में हुआ था।
- वर्तमान में यहाँ घघर नदी बहती है।
- इस सभ्यता की खोज 1951-52 ई. में AMLANNAD GHOSH NE KI TATHA 1961-1969 ई. TAK B.B LAL OR B.K THAPAR KE निर्देशन में खुदाई KARYA HUA ।
- सिन्धु सभ्यता/हड़प्पा सभ्यता की तीसरी राजधानी माने जाने वाली कालीबंगा की सभ्यता राजस्थान की प्राचीनतम सभ्यता है जिसकी प्राचीनता 4000 ई.पू. तक मानी जाती है।
- इस सभ्यता का परिपक़्व काल 2400 से 2250 ई.पू. माना जाता है।
- कालीबंगा की खुदाई का कार्य पाँच स्तरों तक किया गया, जिसमें प्रथम एवं द्वितीय स्तर प्राकृ हड़प्पाकालीन (हड़प्पा सभ्यता से प्राचीन) तथा तीसरा, चौथा और पाँचवाँ स्तर हड़प्पा सभ्यता के समकालीन माना जाता है।
- कालीबंगा सुव्यवस्थित नगर योजना पर बसा हुआ था।
- यहाँ दुर्ग को दो भागों में बाँटने का साक्ष्य मिलता है।
- लकड़ी की नालियों के साक्ष्य सिर्फ कालीबंगा से प्राप्त होते हैं।
- प्राकू हड़प्पाकालीन दुहरा जुता हुआ खेत मिला है जो भारत में प्राचीनतम जुते हुए खेत का साक्ष्य है। RAJASTHAN KI PRACHEEN SABHYATAYEN
कालीबंगा –
- कालीबंगा से सात अग्निवेदियाँ होने का साक्ष्य प्राप्त हुआ।
- इस तरह की अग्निवेदियाँ (हवन कुण्ड) हड़प्पा सभ्यता में मात्र कालीबंगा और लोथल से प्राप्त हुई हैं।
- सैंधव सभ्यता की सामान्य विशेषता के विपरीत यहाँ मकान बनाने के लिए मिट्टी की कच्ची इंटों का प्रयोग किया जाता था जो धूप में सुखाई जाती थी।
- कालीबंगा से जौ और गेहूँ ऊपजाने के प्रमाण मिले हैं।
- कालीबंगा के निवासी लकड़ी के हलों का प्रयोग करते थे।
- यहाँ से एक बालक की खोपड़ी की शल्य चिकित्सा (ट्रिपेनेशन- पाइन नामक औजार द्वारा) के प्रमाण मिले हैं।
- सिन्धु सभ्यता में कालीबंगा और लोथल से ही शल्य चिकित्सा के प्रमाण मिले हैं।
- यहां खुदाई से मिट्टी के बर्तन और उनके अवशेष प्राप्त हुए हैं।
- ये बर्तन पतले और हल्के हैं लेकिन इनमें सुन्दरता और सुड़ौलता का अभाव है।
- यहाँ से कपास व भूकम्प के साक्ष्य और अंडाकार व आयताकार कब्रें भी प्राप्त हुई हैं।
- कालीबंगा स्थल का आकार चतुर्भुज के समान है।
आहड़ (उदयपुर) –
- उदयपुर जिले में आयड़ (बेड़च) नदी के किनारे विकसित आहड़ सभ्यता का काल 2100 से 1500 ई.पू. माना जाता है।
- डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने आहड़ सभ्यता का समृद्धकाल 1900 से 1200 ई.पू. माना है।
- आहड़ की प्राचीन सभ्यता की खोज 1953 ई. में अक्षयकीर्ति व्यास ने की तथा यहाँ उत्खनन कार्य 1956 ई. और 1961 ई. में क्रमश: रतनचन्द्र अग्रवाल और एच.डी. सांकलिया के निर्देशन में हुआ।
- ताँबे के उपकरण अधिक मात्रा में मिलने के कारण आहड़ को ‘ताम्रवती नगरी’ कहा जाता है।
- 10-11वीं शताब्दी में इसे आघाटपुर या आघाटदुर्ग के नाम से जाना जाता था।
- स्थानीय लोग आहड़ को धूलकोट (धूल का ढेर) नाम से भी जानते हैं।
- आहड़ दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान में प्राचीन सभ्यता का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है।
- आहड़ बनास संस्कृति का प्रमुख स्थान है।
- बनास संस्कृति के अन्य स्थल गिलूण्ड, बागोर, बालाथल और भगवानपुरा आदि हैं।
RAJASTHAN KI PRACHEEN SABHYATAYEN
- आहड़ निवासी लाल-काले मृद्भाण्डों का प्रयोग करते थे।
- बर्तन निर्माण हेतु चाक का भी इस्तेमाल किया जाता था।
- यहाँ से ताँबे की दो कुल्हाड़ियाँ, अंगूठियाँ, चूड़ियाँ भी मिली हैं।
- अनाज रखने के बड़े मृद्भाण्ड जिन्हें ‘गोरे’ या ‘कोठे’ कहा जाता है, भी प्राप्त हुए हैं।
मुद्राएँ–
- आहड़ से ताँबे की छः मुद्राएँ और तीन मुहरें मिली हैं।
- एक मुद्रा में त्रिशूल खुदा हुआ है तथा एक अन्य मुद्रा यूनानी शैली की है जिस पर यूनानी देवता अपोलो का अंकन है।
- कुछ मकानों में 2 और 3 चूल्हे तथा एक मकान में 6 चूल्हे संयुक्त परिवार प्रणाली या सामूहिक भोज के द्योतक हैं।
- कपड़ों पर छपाई के ठप्पे, शरीर से मैल छुड़ाने के झाबे और तोल के बाट व माप भी आहड़ से मिले हैं।
RAJASTHAN KI PRACHEEN SABHYATAYEN मकान बनाने के लिए –
- आहड़ निवासी निवासी धूप में सुखाई गई मिट्टी की कच्ची ईंटों और मुलायम पत्थरों का प्रयोग मकान बनाने के लिए करते थे।
- आहड़वासी कीमती पत्थरों, जैसे-गोमेद, स्फटिक आदि से गोल मणियाँ बनाते थे, जिनमें काँच, पक्की मिट्टी, सीप और हड्डी के गोलाकार छेद वाले अंड भी लगाए जाते थे।
- इनका प्रयोग गले में धारण करने एवं सजावट व अलंकरण में किया जाता था।
आहड़वासी कृषि करते थे और अनाज को पकाकर खाते थे। गेहूँ, ज्वार और चावल की खेती की जाती थी।
गणेश्वर (सीकर) –
- सीकर जिले में काँतली नदी किनारे भारत का प्राचीनतम ताम्रयुगीन स्थल गणेश्वर स्थित है।
- गणेश्वर को भारत की ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी माना जाता है।
- गणेश्वर के उत्खनन से सैकड़ों ताम्र-आयुध और ताम्र उपकरण प्राप्त हुए हैं, जिनमें कुल्हाड़े, तीर, भाले, सुइयाँ, मछली पकड़ने का काँटा और आभूषण प्रमुख हैं।
- गणेश्वर से प्राप्त ताम्र उपकरणों में 99 प्रतिशत ताँबा मिलता है, अर्थात् गणेश्वर निवासियों को धातु मिश्रण करने का ज्ञान नहीं था।
- गणेश्वर को ‘पुरातत्त्व का पुष्कर’ भी कहा जाता है।
- GANESWAR- गणेश्वर के लोग भवन निर्माण हेतु पत्थरों का प्रयोग करते थे।
- माना जाता है कि सिंधु सभ्यता, कालीबंगा और आहड़ के निवासी ताँबा और ताम्र-सामग्री गणेश्वर से प्राप्त करते थे।
बैराठ (जयपुर) –
- बाणगंगा नदी के किनारे स्थित प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल बैराठ से प्रागैतिहासिक, ताम्र-पाषाणिक, लौह, महाभारत, मौर्य और मध्य युग आदि कालों के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं।
- प्राचीन ग्रन्थों में वैराठ का नाम ‘विराटनगर’ मिलता है, जिसकी स्थापना महाभारत काल में राजा विराट ने की और इसे अपनी राजधानी बनाया। महाभारत के अनुसार पाण्डवों ने अपना अज्ञातवास यहीं बिताया था।
- महाजनपद काल में विराट नगर मत्स्य जनपद की राजधानी था।
- बैराठ से 36 मुद्राएँ मिली हैं जिनमें से 8 आहत (पंचमार्क) और 28 यूनानी शासकों की हैं, इनमें से 16 मुद्राएँ यूनानी शासक मिनाण्डर (160-120 ई. पू.) की हैं।
- 1837 ई. में कैप्टन बर्ड ने बैराठ की बीजक ड्रॅगरी से मौर्य सम्राट अशोक के भाब्रू लघु शिलालेख की खोज की थी, वर्तमान में यह शिलालेख कलकत्ता संग्रहालय में रखा हुआ है।
- भाब्रू शिलालेख अशोक के बौद्ध होने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रमाण माना जाता है। इसमें अशोक स्पष्ट रूप से बुद्ध, धम्म और संघ के प्रति निष्ठा प्रकट करता है।
- 1872 ई. में कार्लाइल ने बैराठ की भीमजी की ड्रॅगरी से अशोक का एक अन्य शिलालेख खोजा था।
दयाराम साहनी –
- 1936 ई. में दयाराम साहनी ने बीजक डूंगरी पर उत्खनन करवाया जिसमें अशोक स्तम्भ और बौद्ध गोल मन्दिर (स्तूप) के ध्वंसावशेष प्राप्त हुए।
- विद्वानों की मान्यता है कि इस बौद्ध गोल मन्दिर का निर्माण अशोक ने करवाया था, जिसे दयाराम साहनी के अनुसार हूण आक्रमणकारी मिहिरकुल ने नष्ट कर दिया।
- बीजक ड्रॅगरी से ही 6-7 कमरों वाले ईंटों से निर्मित बौद्ध मठ के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
- बैराठ से शंख लिपि के भी साक्ष्य मिले हैं।
- यहाँ से प्राप्त मध्यकालीन अवशेषों में ईदगाह और अकबरकालीन जैन मन्दिर प्रमुख हैं।
- बैराठ से हाथ से बुना हुआ सूती कपड़ा, मृद्भाण्डों पर स्वस्तिक और त्रिरत्नचक्र के चिन्ह, मिट्टी का नाचता हुआ पक्षी, पत्थर की थालियाँ व छोटी सन्दूकें तथा लोहे व ताँबे की वस्तुएँ बनाने के औजार भी प्राप्त हुए है।
- बैराठ के निकट प्रचुर मात्रा में पत्थर उपलब्ध होने के बावजूद ईंटों का अत्यधिक प्रयोग किया गया था।
- बौद्ध मठ, स्तूप, मंदिर, भवनों व चबूतरों का निर्माण ईंटों से किया गया था।
बागोर (भीलवाड़ा) –
- भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी के किनारे प्रसिद्ध प्रागैतिहासिक स्थल बागोर स्थित है।
- इसकी खुदाई 1967-1971 ई. के मध्य श्री वीरेन्द्रनाथ मिश्र के द्वारा की गई थी।
- बागोर से पाषाणकालीन पत्थर के औजारों का विशाल भण्डार मिला है जो भारत में पाषाणकालीन औजारों का सबसे बड़ा भण्डार है।
- यहाँ से जली हुई हड्डियाँ, 5 नर कंकाल और माँस के भूने जाने के साक्ष्य मिले हैं।
- बागोर और आदमगढ़ (म.प्र.) से भारत में पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं। ये साक्ष्य मध्यपाषाणकाल से सम्बन्धित हैं।
बालाथल (उदयपुर) –
- उदयपुर जिले में स्थित बालाथल ग्राम में 1993 ई. में वीरेन्द्रनाथ मिश्र के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया।
- बालाथल के उत्खनन में हड़प्पा संस्कृति से समानता रखने वाले मृद्भाण्ड मिले हैं जो बालाथल का हड़प्पा सभ्यता से निकट सम्पर्क का परिणाम था।
- ताम्रपाषाणिक स्थल बालाथल से ताँबे के विभिन्न उपकरणों सहित ताँबे के सिक्के भी मिले हैं जिन पर हाथी और चन्द्रमा की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।
- लोगों का जीवन कृषि, पशुपालन और मछली पकड़ने पर निर्भर था।
- यहाँ के निवासी विविध प्रकार के मृद्भाण्ड, पत्थर के मनके, पकी मिट्टी की मूर्तियाँ, पशु आकृतियाँ तथा ताम्र औजार बनाते थे।
- बालाथल के मुद्भाण्ड अपरिष्कृत तथा बहुत कम मात्रा में अलंकृत मिले हैं। ये आग में पूरी तरह पके हुए भी नहीं हैं। खुदाई में हाथ से बने हुए कपड़े का टुकड़ा भी मिला है, जो लगभग 500 ई. पू. का है।
- बालाथल की खुदाई में लोहे के औजार व लोहा गलाने की पाँच भट्टियाँ तथा 12 कमरों वाले भवन के अवशेष भी प्राप्त हुये हैं।
नगर (टोंक) –
- नगर सभ्यता को ‘खेड़ा सभ्यता’ भी कहा जाता है।
- यह मालव जनपद का प्रमुख स्थान था।
- खुदाई में 6000 ताँबे के सिक्के मिले हैं, जो मालव जनपद के हैं।
- नगर से शुंगकालीन स्लेटी पत्थर से बनी महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा, कुषाणकालीन रति-कामदेव की मूर्ति, पत्थर पर मोदक रूप में गणेश का अंकन, देवी दुर्गा का अंकन, फनधारी नाग का अंकन, कमल धारण किए हुए लक्ष्मी की खड़ी प्रतिमा मिली है।
गिलुण्ड (राजसमन्द) –
- राजसमन्द जिले में स्थित गिलुण्ड कस्बे में बनास नदी के किनारे दो टीलों की खुदाई 1957-58 ई. में बी.वी. लाल के नेतृत्व में हुई थी।
- यहाँ से ताम्रयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
- इस सभ्यता का समय 1700-1300 ई.पू. माना जाता है।
- गिलुण्ड की प्रमुख विशेषता यहाँ से काले रंग से चित्रित पात्रों पर नृत्य मुद्राएँ एवं चिकतेदार हरिण का अंकन मिलना है।
नगरी (चित्तौड़गढ़) –
- नगरी राजस्थान में उत्खनित प्रथम स्थल माना जाता है।
- नगरी में खुदाई 1904 ई. में डी.आर. भण्डारकर द्वारा की गई थी।
- नगरी को प्राचीनकाल में ‘माध्यमिका’ नाम से जाना जाता था।
- यहाँ से शिवि जनपद के सिक्के प्राप्त हुए हैं।
- नगरी की खुदाई से लेखांकित पाषाण खण्ड, मृण्मय-कलाकृतियाँ और मूर्तिखण्ड तथा गुप्तयुगीन एक मन्दिर, जिसमें शिव की मूर्ति प्रतिष्ठापित थी, चार चक्राकार कएँ, लाल पॉलिशदार पात्रों के टुकड़े तथा सफेद खड़िया मिट्टी के पात्र मिले हैं।
यहाँ से पाँचवीं शताब्दी (गुप्तकाल) में निर्मित नटराज शिव की मूर्ति प्राप्त हुई, जो राजस्थान में नटराज मूर्ति के निर्माण का प्राचीनतम साक्ष्य है।
रंगमहल (हनुमानगढ़ ) –
- HANUMANGAD JILE ME घग्घर नदी KE तट PAR स्थित RANGMAHAL KI KHUDAI 1952 ई. में स्वीडन की पुरातत्वविद् डॉ. हन्नारिड के निर्देशन में हुआ था।
- यहाँ की सभ्यता कुषाणकालीन एवं पूर्व गुप्तकालीन सभ्यता के समान है।
- रंगमहल से घंटाकार मृपात्र, टोंटीदार घड़े, प्याले, कटोरे, बर्तनों के ढक्कन, दीपक, दीपदान, धूपदान आदि प्राप्त हुए हैं।
- यहाँ से अनेक मृण्मृर्तियाँ मिली हैं, जिनमें गोवर्धनधारी श्रीकृष्ण का अंकन सर्वप्रमुख है। ये मूर्तियाँ गांधार शैली की हैं।
- पात्रों पर बनी कलाकृतियों में मानव आकृतियाँ तथा पशु आकृतियाँ चित्रित हैं।
- यहाँ से बच्चों के खेलने की मिट्टी की छोटी पहियेदार गाड़ियाँ भी मिली हैं।
नोह (भरतपुर) –
- भरतपुर जिले में नोह गाँव में 1963-64 ई. में श्री रतनचन्द्र अग्रवाल के निर्देशन में की गई खुदाई में ताम्रयुगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
- यहाँ उत्खनन में पाँच सांस्कृतिक युगों के अवशेष मिले हैं।
- नोह से कच्ची ईंटों से बना एक परकोटा जो प्रथम शताब्दी ई.पू. का माना जाता है, लाल रंग के साधारण बर्तनों के टुकड़े, मित्र शासकों के ताँबे के सिक्के, वसुन्धरा तथा कामी-युगल के अंकन वाली कलाकृति आदि वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं।
- यहाँ के कुषाण शासक हुविष्क और वासुदेव के सिक्के तथा गंदा पानी एकत्रित करने के लिए बनाये गये चक्रकूप भी मिले हैं।
- प्रस्तर निर्मित विशालकाय (8 फीट ऊँची) यक्ष प्रतिमा (जाख बाबा) जो शुंगकालीन मानी जाती है, नोह से प्राप्त महत्त्वपूर्ण कलाकृति है।
रैढ़ (टोंक) –
- रैढ़ से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से द्वितीय शताब्दी ईस्वी तक के अवशेष मिले हैं।
- रैढ प्राचीन भारत के ‘टाटानगर’ के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ से टूटे प्याले, मणके, मृण्मय कलाकृतियाँ तथा घरों के अन्दर अनाज के दाने भी मिले हैं।
- रैढ से ताँबे, सीसे, चाँदी तथा सोने से निर्मित कई वस्तुएँ मिली हैं।
- यहाँ से लगभग तीन हजार आहत मुद्राएँ मिली हैं, जिनमें मालव तथा मित्र शासकों एवं अपोलाडोंट्स का सिक्का तथा इण्डोससेनियन सिक्के प्रमुख हैं।
नलियासर (जयपुर) –
- जयपुर जिले में साँभर के पास स्थित नलियासर से खुदाई में आहत मुद्राएँ
- उत्तर इण्डोससेनियन सिक्के, हुविष्क के सिक्के, इण्डोग्रीक सिक्के, योधेय गण के सिक्के तथा गुप्तयुगीन चाँदी के सिक्के प्राप्त हुए है।
- यहाँ से सोने से निर्मित खुदा हुआ सिंह शिर, ताँबे की घण्टिका, मिट्टी के तोलने के बाट,
- मिट्टी की तलवार, नालियों के गोल पाईप,
- हड्डी का बना पासा तथा ताँबे की 105 कुषाण कालीन मुद्राएँ भी मिली हैं।
- यह स्थल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से चौहान युग तक की संस्कृति का केन्द्र रहा है।
ओझियाना (भीलवाड़ा) –
ओझियाना के उत्खनन में प्राप्त मृदपात्र परम्परा एवं भवन संरचना के आधार पर इस संस्कृति का विकास तीन चरणों में हुआ माना जाता है।
- प्रथम चरण कृषक वर्ग से सम्बन्धित लोगों द्वारा बसाई गई बस्ती का है।
- द्वितीय चरण में पत्थर से आवास संरचनाएं बनाई गई।
- इस चरण का अन्त अग्निकाण्ड से होने के प्रमाण भी मिले हैं।
- यहाँ से प्राप्त पुरासामग्री में वृषभ एवं गाय की मृण्मय मूर्तियाँ, मृण्मय खिलौना, गाड़ी के पहिये, सिलबट्टा, प्रस्तर हथौड़ा, गोलछेद वाला पत्थर आदि प्रमुख हैं।
ईसवाल (उदयपुर) –
- ईसवाल को प्राचीन औद्योगिक नगरी के रूप में जाना जाता है।
- यहाँ से दो हजार वर्ष तक निरन्तर लोहा गलाने के प्रमाण मिले हैं।
- उत्खनन से लौहमल, लौह अयस्क, भट्टी में प्रयुक्त होने वाले पाइप भी मिले हैं।
- पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के लगभग यहाँ लोहा गलाने का कार्य प्रारम्भ हो गया था।
- यहाँ से मिले सिक्कों को प्रारम्भिक कुषाण काल का माना जाता है।
- उत्खनन से कुछ हड्डियाँ भी मिली हैं, जिनमें ऊँट का दाँत महत्वपूर्ण है।
सुनारी (झुंझुनूँ)- RAJASTHAN KI PRACHEEN SABHYATAYEN
- खेतड़ी तहसील के सुनारी गांव में काँतली नदी के तट पर खुदाई में अयस से लोहा बनाने की भट्टियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं
- ये भारत की प्राचीनतम भट्टियाँ मानी जाती हैं।
- यहाँ से लोहे के तीर, भाले के अग्रभाग, लोहे का कटोरा तथा कृष्ण परिमार्जित मृपात्र भी मिले हैं जो मौर्ययुगीन माने जाते हैं।
- सुनारी के निवासी चावल का प्रयोग करते थे, घोड़ों से रथ खींचते थे तथा साधारण मकानों में रहते थे।
- यहाँ मातृदेवी की मृणमूर्तियाँ और धान संग्रहण का कोठा भी मिला है।
तिलवाड़ा (बाड़मेर) –
लूणी नदी के तट पर स्थित तिलवाड़ा की सभ्यता का काल डॉ. वी. एन. मिश्र ने 500 ई.पू. से 200 ई. माना है। यहाँ से लोहे के टुकड़े, काँच की चूड़ियों के टुकड़े, हड्डी के मणके तथा सीप की चूड़ी आदि प्राप्त हुए हैं।
तिलवाड़ा से एक अग्निकुण्ड मिला है जिसमें मानव अस्थि भस्म तथा मृत पशुओं के अस्थि अवशेष मिले हैं।
RAJASTHAN KI PRACHEEN SABHYATAYEN FAQs ?
प्रश्न – सोने से निर्मित खुदा हुआ सिंह शिर, ताँबे की घण्टिका कोनसी सभ्यता से प्राप्त हुई है ?
उत्तर नलियासर (जयपुर)
प्रश्न – प्राचीन भारत के ‘टाटानगर’ के रूप में प्रसिद्ध है ?
उत्तर रैढ़ (टोंक)
प्रश्न – लक्ष्मी की खड़ी प्रतिमा कोनसी सभ्यता से प्राप्त हुई है ?
उत्तर नगर (टोंक) से।
प्रश्न – तिलवाड़ा की सभ्यता कौनसी नदी के तट पर स्थित है ?
उत्तर – लूणी नदी के तट पर
प्रश्न – अयस से लोहा बनाने की भट्टियों के अवशेष कहा से प्राप्त हुए हैं ?
उत्तर – खेतड़ी तहसील के सुनारी गांव में काँतली नदी के तट पर खुदाई में
प्रश्न – राजस्थान में उत्खनित प्रथम स्थल कौनसा माना जाता है ?
उत्तर – नगरी राजस्थान में उत्खनित प्रथम स्थल माना जाता है।
प्रश्न – ‘कालीबंगा’ का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तर – ‘कालीबंगा’ का शाब्दिक अर्थ ‘ काली चूड़ियाँ होता है।
प्रश्न – मिट्टी की तलवार कौनसी सभ्यता से मिली ?
उत्तर – नलियासर (जयपुर)
प्रश्न – विशालकाय (8 फीट ऊँची) यक्ष प्रतिमा (जाख बाबा) कौनसी सभ्यता से प्राप्त हुई ?
उत्तर – नोह (भरतपुर)
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