RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE | राजस्थान में रीती रिवाज और प्रथाएं

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE – राजस्थान में अगर बात करे रीति रिवाज और प्रथाओं की तो यहा भिन्न भिन्न समाज में अलग – अलग तरह के रीति रिवाज और प्रथाएं | RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE प्रचलित है जिनका बहोत समय से लोग उन सभी रीती रिवाजों और प्रथाओं को चलन में रखे हुए है इन सभी रीती रिवाजो और प्रथाओं को लेकर अक्सर परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाते है आज हम उन सभी RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE जो समाज में प्रचलित है या बंद हो गई है उनके बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE

संथारा /सल्लेखना – यह जैन धर्म में होता है। इसमें अन्न-जल छोड़कर मोक्ष प्राप्ति के लिए शरीर त्याग दिया जाता है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने श्रवणबेलगोला नामक जगह पर संथारा किया था।

समाधि प्रथा- साधु महात्माओं द्वारा पानी में डूबकर या भूमि में खड्डा खोदकर जीवित समाधि ली जाती है। इस प्रथा को सर्वप्रथम बंद 1844 ई. में जयपुर के पोलिटिकल ऐजेन्ट मेजर लुड़लो ने रामसिंह द्वितीय के समय किया। 1861 ई. में यह प्रथा पूर्णरूप से (अनु. 21) बन्द हो गयी।

सती प्रथा – सती तीन प्रकार की होती है-

  1. अनुमरण – पति की मृत्यु के बाद पत्नी पति की किसी निशानी के साथ पीछे से मरती है, वह अनुमरण कहलाता है।
  2. सहमरण/सहगमन – पति की मृत्यु के बाद पत्नी पति के साथ ही लकड़ियों में जलकर मर जाती है, उसे सहमरण कहते हैं।
  3. माँ सती – पुत्र की मृत्यु के बाद माता द्वारा सती होना माँ सती कहलाता है।
  • सती न होने वाली औरत को समाज अनेक प्रकार की यातनाएँ देता था।

जैसे- शुभकार्य में शामिल नहीं करना, नये वस्त्र नहीं पहनना, रूखा- सूखा खाना देना आदि।

  • गर्भवती महिला अपने पति के साथ सती नहीं होती थी बल्कि वह बच्चे को जन्म देकर पीछे से पति की किसी निशानी के साथ सती होती थी।
  • भारत में सती का प्रथम प्रमाण – भारत में सती प्रथा का पहला प्रमाण एरण (मध्यप्रदेश) अभिलेख में मिला है जो 510 ई. का है। इस अभिलेख के अनुसार भानुगुप्त के सामन्त गोपराज की मृत्यु पर उसकी रानी सीता सती हुई थी।
  • राजस्थान में सती प्रथा का प्रथम प्रमाण – राजस्थान में सती प्रथा का पहला प्रमाण घटियाला अभिलेख (जोधपुर) में मिला है जो 861 ई. का है। इस अभिलेख के अनुसार राणुका की मृत्यु पर उसकी पत्नी संपल देवी सती हुई थी।
  • भारत व राजस्थान में सती प्रथा का अन्तिम प्रमाण – सती प्रथा का अन्तिम प्रमाण देवराला कांड (सीकर) है जिसमें सितम्बर 1987 में माल सिंह की मृत्यु पर उसकी पत्नी रूपकंवर को सती कर दिया गया था। इसके बाद 1987 में राज्य सरकार ने सती निवारण अध्यादेश जारी किया। जो 3 जनवरी, 1988 से लागू हुआ।
  • सती प्रथा को सर्वप्रथम रोकने का प्रयास मोहम्मद बिन तुगलक ने किया। अकबर ने भी इस प्रथा को रोकने का प्रयास किया था।
  • राजस्थान में इस प्रथा को सर्वप्रथम बंद 1822 ई. में बूँदी रियासत के विष्णुसिंह ने किया।
  • 1825 ई. में बीकानेर ने तथा 1844 ई. में जयपुर के रामसिंह ने सती प्रथा पर रोक लगाई।
  • 1861 ई. में मेवाड़, 1848 ई. कोटा, 1848 ई. जोधपुर, 1846 ई. डूँगरपुर व प्रतापगढ़ ने सती प्रथा पर रोक लगाई।
  • 1829 ई. में राजा राममोहन राय व लार्ड विलियम बैटिक ने मिलकर धारा 17 के तहत सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। यह कानून बनने के बाद राजस्थान में इस प्रथा को सर्वप्रथम बंद 1830 ई. में अलवर रियासत के बन्ने सिंह ने किया।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE जोहर प्रथा –

जोहर प्रथा – सती पति की मृत्यु के बाद अग्नि में होती है जबकि जोहर पति की मृत्यु से पहले अग्नि जल दोनों में हो सकता है। जब दुश्मन राजाओं के दुर्ग को घेर लेते थे तब दुर्ग में स्थित सभी महिलाएँ अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जल में डूबकर या अग्नि में जलकर अपने प्राण दे देती थी। इसके बाद राजपूत दुर्ग का दरवाजा खोलकर दुश्मनों के साथ केसरिया वस्त्र पहनकर लड़ते हुए मारे जाते। जिसे केसरिया कहते हैं। इस प्रकार दुर्ग का साका होता था।

  • भारत में प्रथम जोहर 712 ई. में मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के समय दाहिर की पत्नी रानी देवी के नेतृत्व में हुआ था। राजस्थान में प्रथम प्रमाणित जल जोहर 1301 ई. में रणथम्भौर (सवाईमाधोपुर) दुर्ग में हम्मीर देव चौहान की पत्नी रंग देवी के नेतृत्व में हुआ। राजस्थान का प्रथम अग्नि जोहर 1303 ई. में चित्तौड़ दुर्ग में हुआ जिसमें रतन सिंह की पत्नी पद्मनी ने नेतृत्व किया। 1292 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने जैसलमेर दुर्ग पर आक्रमण किया जिसमें जैसलमेर के शासक मूलराज प्रथम के नेतृत्व में साका हुआ लेकिन यह अप्रमाणित साका है।

बाल विवाह प्रथा -RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE

बाल विवाह प्रथा – नाबालिक लड़के लड़की की शादी बाल विवाह कहलाता है। बाल-विवाह सर्वाधिक अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया) पर होता है।

  • बाल-विवाह का प्रथम लिखित प्रमाण बाण-भट्ट की पुस्तक हर्ष चरित में मिलता है। राजस्थान में सर्वप्रथम बाल-विवाह पर रोक जोधपुर के प्रताप सिंह ने 1885 ई. में लगवाई।
  • बाल विवाह की रोकथाम के लिए अजमेर के हरविलास शारदा व लाई इरविन के नेतृत्व में 1929 में शादरा एक्ट बना जो 1 अप्रैल 1930 को लागू हुआ। इस एक्ट में लड़के की उम्र 18 वर्ष लड़की की उम्र 14 वर्ष की गई। 1978 में संशोधन कर लड़के की उम्र 21 वर्ष व लड़की की उम्र 18 वर्ष कर दी गई। 2006 में बाल-विवाह प्रतिषेध अधिनियम बना जो 10 जनवरी 2007 को लागू हुआ जिसके तहत बाल-विवाह में शामिल होने वाले पण्डित, हलवाई, बाराती भी सजा के हकदार होंगे।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE विधवा पुनर्विवाह –

विधवा पुनर्विवाह – विधवा महिला को दोबारा शादी करने का अधिकार नहीं था जिसे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर व लार्ड डलहौजी ने 27 जुलाई, 1856 ई. में अधिनियम बनाकर धारा 5 के तहत मान्यता दे दी जिसे लागू लार्ड केनिंग ने किया। स्वामी दयानंद सरस्वती व लोकदेवता जाम्भोजी ने विधवा विवाह के लिए प्रयास किया। जयपुर के सवाई जयसिंह ने विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया। चाँदकरण शारदा ने विधवा विवाह नामक पुस्तक लिखी। 6 दिसम्बर, 1856 ई. कलकता में प्रथम विधवा विवाह संपन्न हुआ।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE दहेज प्रथा –

दहेज प्रथा – वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को दी जाने वाली राशि व उपहार दहेज कहलाता है। पहले राजा-महाराजा अपनी राजकुमारियों की शादी में दासियाँ दहेज में देते थे। भारत सरकार ने 1961 में अधिनियम बनाकर इसे बन्द किया। 2006 में पुनः दहेज प्रथा पर अधिनियम बना। अब दहेज देने वाला व लेने वाला दोनों दोषी है।

दापा प्रथा- यह दहेज का उल्टा है। इसमें वर पक्ष वधू पक्ष को राशि देता है। इसे वधू मूल्य भी कहते है।

चारी प्रथा – यह प्रथा भीलवाड़ा व टोंक में प्रसिद्ध है। इस प्रथा में लड़की के माता-पिता कन्या मूल्य लेते है। चारी के लालच में लड़की के पिता विवाह को ज्यादा नहीं चलने देता था क्योंकि वह दूसरे से शादी कर पुनः चारी लेता था।

डाकन प्रथा/चुड़ैल प्रथा – यह आदिवासियों में सर्वाधिक होती है। इस प्रथा में किसी महिला को डाकन कहकर गाँव में जला दिया जाता है। 1853 ई. में मेवाड़ भील कोर के जे. सी. ब्रुक ने इस पर रोक लगाई। महाराणा स्वरूप सिंह ने खेरवाड़ा (उदयपुर) से इस प्रथा को बन्द किया। राजस्थान डायन प्रताड़ना निवारण अधिनियम 2015 में बना जो 26 जनवरी 2016 से लागू हुआ। जिसमें डायन/चूडैल प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया गया।

कन्या वध – बच्ची के जन्म पर उसका गला घोंटकर, अफीम देकर, में डूबोकर मार दिया जाता था। इस प्रथा का मुख्य कारण टीक व त्याग प्रथा थी। 1833 ई. में कोटा ने कन्या वध को सर्वप्रथम बंद किया। कन्या वध को बन्द करवाने में हाड़ौती के पी.ए. विलकिंसन ने प्रयास किया। 1834 ई. बूँदी, 1844 ई. जयपुर व उदयपुर ने कन्या वध को बन्द कर दिया।

त्याग व टीक प्रथा –

इस प्रथा में लड़की के विवाह के समय कुछ जातियाँ लड़की के पिता से मुह मांगी राशि मांगती जिसे लड़की के पिता को देना पड़ता था। जिससे कन्या का वध होता था। 1841 ई. में वाल्टर हितकारिणी सभा द्वारा जोधपुर से इसे बंद कर दिया। 1844 ई. में बीकानेर व जयपुर में त्याग प्रथा बन्द हुई। 1888 ई. में ए.जी.जी. वाल्टर ने त्याग प्रथा को बन्द करने के नियम बनाये जिसमें राजपूत हितकारिणी सभा ने सहयोग किया।

पर्दाप्रथा – प्राचीन युग में इस प्रथा का प्रचलन नहीं था। इस प्रथा का प्रारम्भ गुप्तकाल में जबकि सर्वाधिक बढ़ावा मध्यकालीन समय में मुस्लिम आक्रमण के बाद मिला। राजपूत जातियों में यह अधिक प्रचलित है। मुस्लिम समाज में यह एक धार्मिक प्रथा है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्त्री शिक्षा द्वारा इसे मिटाने की कोशिश की।

बेगार प्रथा/हलमा/हीड़ा-

पहले राजा महाराजा जब दुर्ग, मन्दिर, महलों का निर्माण करवाते तब प्रत्येक गाँव से बिना पैसे से मजदूर काम करने आते थे। बेगार प्रथा कहते है। इस प्रथा में राजा को मुफ्त में सेवाएँ देना होता है। ब्राह्मण व राजपूतों से बेगार नहीं ली जाती थी। आदिवासियों में आपसी सहयोग किया जाता है जिसमें पैसे नहीं लिये जाते थे, इसे हलमा या हीड़ा कहते है। सन् 1976 में अधिनियम बनाकर इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया। बूँदी में महिलाओं से भी बेगार ली जाती थी। अनुच्छेद 23 में बेगार लेना गैर-कानूनी है। जेल में कैदी भी जेल में काम करता है तो उसे उसका वेतन मिलेगा।

सांगड़ी/बंधुआ मजदूर/हाली प्रथा- किसान जब सेठ-साहूकारों से उधार ली गई राशि समय पर नहीं चुका पाते तब सेठ साहूकार उस किसान को अपने घर या खेत में तब तक मजदूरी करवाते जब तक उधार ली गई राशि ब्याज सहित पूरी नहीं हो जाती। अगर उस किसान की मृत्यु हो जाती तब उसके बच्चे उस राशि को चुकाते। सन् 1961 में अधिनियम बना जो 1975 में लागू हुआ जिसके तहत अब किसी से बंधुआ मजदूरी नहीं करवा सकते। अनुच्छेद 23 में इसे गैर कानूनी घोषित किया गया। सागड़ी प्रथा में घर का काम करना चाकर प्रथा व खेत का काम करना हाली प्रथा कहलाता है।

मानव व्यापार – लड़के-लड़कियों का क्रय विक्रय मानव व्यापार कहलाता है। राजा राजकुमारी के दहेज में देने के लिए दास-दासियाँ खरीदते थे। इस प्रथा को सर्वप्रथम कोटा ने 1831 ई. में बंद करने का प्रयास किया। 16 फरवरी, 1847 ई. में जयपुर ने इसे बंद कर दिया। कोटा राज्य में मानव क्रय विक्रय पर चौथान कर लिया जाता था।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE दास प्रथा-

दास प्रथा- दास प्रथा का सर्वप्रथम उल्लेख कोटिल्य ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में किया है जिसमें नौ प्रकार के दासों का उल्लेख है। 1562 ई. में इस प्रथा पर रोक अकबर ने लगाई थी। दासों के निवास स्थान को राजलोक कहते थे। डावडी, पड़दायल, पासवान, खवासन दासियों के प्रकार थे। दासियों से उत्पन्न पुत्र दासी पुत्र या औरस पुत्र कहलाते थे। 1832 ई. में लार्ड विलयम बैंटिक ने दास निवारक अधिनियम बनाया। इस प्रथा को सर्वप्रथम बंद 1832 ई. में कोटा ने किया। दास युद्ध में बन्दी बनाये गये सैनिक या उधार दी गई राशि नहीं चुकाने पर बनाये जाते है। दास दो प्रकार के होते थे। जिसमें एक दास वह होता था जो स्वयं के जीवन तक दास होता था। जैसे बाहुबली में कटप्पा था और एक दास वह होता था जो शासक के जीवन तक दास रहता था। जैसे कुतुबद्दीन ऐबक जो मोहम्मद गौरी के जीवन तक उसका दास था।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE नाता प्रथा –

पूर्व पति को छोड़कर अन्य व्यक्ति से शादी करना नाता प्रथा कहलाता है। यह आदिवासियों में होती है।

छेड़ा फाड़ना प्रथा – पत्नी पति को साड़ी का पल्लू फाड़कर देती है, जो तलाक होता है।

आन्न प्रथा – इस प्रथा में राणा के प्रति स्वामीभक्ति की शपथ लेनी होती थी। 1863 ई. में मेवाड़ से इसे बन्द कर दिया।

झगड़ा या दावा राशि – दूसरे पति द्वारा प्रथम पति को कुछ राशि भेंट की जाती है जो झगड़ा राशि कहलाती है।

नौतरा प्रथा- यह वागड (डूंगरपुर, बाँसवाड़ा) क्षेत्र में प्रचलित है। इस प्रथा में व्यक्ति की आर्थिक सहायता की जाती है।

मौताणा प्रथा- यह उदयपुर में आदिवासियों में प्रचलित है। इस प्रथा में किसी व्यक्ति की मृत्यु पर खून खराबे के बीच हर्जाना राशि वसूल की जाती है।

कूकड़ी प्रथा – यह सांसी जाति में लड़की के चरित्र की परीक्षा होती है।

ओख – त्योहार के दिन जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, उस परिवार में तब तक उस त्योहार को नहीं मनाते हैं जब तक किसी का जन्म उस त्योहार के दिन नहीं हो जाता है।

चौथान – कोटा में मानव व्यापार पर लिया जाने वाला कर।

देवर घट्टा – बड़े भाई की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी का विवाह छोटे भाई के साथ कर दिया जाता है।

नातरायत – जो पुरूष विधवा महिला से विवाह कर लेता है।

नांगल – नये घर के प्रवेश का मुहुर्त तथा प्रतिभोज देना।

धरेजा – विदुर पुरूष व विधवा महिला की शादी।

तामसेना विवाह – इस विवाह प्रथा में लड़के के ससुराल आकर रहना पड़ता है। यह गौंड जनजाति में प्रचलित सेवा विवाह का गौंडी रूप है।

अधिमान्य विवाह – गौंड जनजाति में ममेरे, फुफेरे, लड़कों और लड़कियों के विवाह को दुध लौटावा के नाम से जाना जाता है।

गोल गोधेडो – इस प्रथा में कोई भी भील युवक अपने शौर्य और साहस को प्रमाणित करता है तो उसे शादी हेतु किसी भी युवती को चुनने का अधिकार होता है।

हाथी बेडो – यह विवाह की एक प्रथा है, जिसमें हरण (वर) तथा लाड़ी (वधू) द्वारा बांस, पीपल या सागवान वृक्ष के समक्ष फेरे लिये जाते है।

मौताणा- उदयपुर संभाग में प्रचलित प्रथा जिसमें खून-खराबे का जुर्माना वसूला जाता है तथा जुर्माने से वसूली गयी राशि बढ़ौतरा कहलाती है।

कट्टा – यह भील जनजाति में प्रचलित मृत्यु भोज की प्रथा है।

नरमुंड – नागालैण्ड की नागा जनजाति में प्रचलित विवाह की एक प्रथा है, जिसमें युवक को किसी दुश्मन कबीले या दुश्मन को जंगल में जाकर शिकार करने या लकड़ी बीनने आए व्यक्ति की हत्या करके उसकी गर्दन काटकर अपने कबीले के सामने पेश करना होता है, उसके बाद ही उस युवक को शादी योग्य माना जाता है। यह प्रथा कुछ कबीलो में आज भी प्रचलित है।

टोटम प्रथा- संथाल जनजाति में प्रचलित प्रथा जिसमें मनुष्यों को सम्बन्ध जानवर, वृक्ष, पौधे या अन्य आत्मा से माना जाता है 1

मैत्री करार- गुजरात में प्रचलित प्रथा जिसमें विवाहित पुरुष अन्य महिला से विवाह करता है। इस प्रथा को स्थानीय स्तर पर कानूनी मान्यता प्राप्त है।

पोलियेंडरी (बहु-पति प्रथा ) – वर्तमान में यह प्रथा पूर्णतः समाप्त हो चुकी है। पहले प्रथा का प्रचलन हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में था।

सती प्रथा – सती प्रथा को राजस्थान में सर्वप्रथम 1822 ई. में बूंदी में गैर-कानूनी घोषित किया गया था, तत्पश्चात् राजा राममोहन राय के प्रयास से लार्ड विलियम बैंटिक ने 1829 में सरकारी अध्यादेश से पूर्णतः रोक लगा दी गयी।

दास प्रथा- दास प्रथा पर राजस्थान में सर्वप्रथम कोटा व बूँदी राज्यों में 1832 में विलियम बैंटिक के द्वारा रोक लगाई गयी।

दहेज प्रथा- भारत सरकार द्वारा 1961 में दहेज निषेध अधिनियम पारित करके लागू किया गया था। लेकिन दहेज प्रथा वर्तमान में भी चली आ रही है।

त्याग प्रथा- त्याग प्रथा मुख्यतः राजस्थान में प्रचलित थी जो कि क्षत्रिय जाति में विवाह के अवसर पर लड़की वालों से भाट जाति मुँह- माँगी दान-दक्षिणा की मांग किया करते थे। त्याग प्रथा की कुप्रथा के कारण प्रायः कन्या का वध कर दिया जाता था। सर्वप्रथम जोधपुर में ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग से नियम बनाकर 1841 ई. में त्याग प्रथा को सीमित करने का प्रयास किया गया।

बेगार प्रथा – सामन्तों, राजाओं व जागीरदारों द्वारा अपनी रैयत से मुफ्त सेवाएँ प्राप्त करना ही बेगार प्रथा थी। ब्राह्मण व राजपूत जाति के अलावा अन्य सभी जातियों को बेगार प्रथा देनी पड़ती थी। बेगार प्रथा का अन्त 1956 में राजस्थान के एकीकरण व जागीरदारी प्रथा की समाप्ति के साथ हुआ।

विधवा विवाह – श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से लार्ड डलहौजी ने 1856 ई. में विधवा पुर्नविवाह अधिनियम बनाकर स्त्रियों को इस दुर्दशा से मुक्ति दिलाई।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE संस्कार – रीति रिवाज

  1. गर्भावधान – यह मानव का प्रथम संस्कार है जो बच्चे के गर्भ में आने पर किया जाता है। ऋतु स्नान के चौथे से 16वें दिन बच्चे का गर्भ में आना श्रेष्ठ माना जाता है। 16वें दिन गर्भ में आया बच्चा सर्वश्रेष्ठ होता है जो राजा या किसी उच्च पद को प्राप्त करता है।
  2. पुंसवन – यह संस्कार तीसरे या चौथे महिने में पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है। इस दिन महिला व्रत करती है यह संस्कार चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर किया जाता है।
  3. सीमंतोनयन – यह संस्कार छठे – सातवें महिने में गर्भवती महिलाओं को अमंगलकारी शक्तियों से बचाने के लिए किया जाता है।
  4. जातकर्म – बच्चे के जन्म लेते ही यह संस्कार किया जाता है जिसमें परिवारों के किसी पुरूष द्वारा बच्चे को पेय पदार्थ पिलाया जाता है। इसे घूंटी भी कहते है। यह जन्म के बाद प्रथम संस्कार है। बच्चों को शहद और घी चटाया जाता है।
  5. नामकरण – शिशु के जन्म के 10-11 दिन बाद पंडित से बच्चे का नामकरण करवाया जाता है।
  6. निष्कर्मण- शिशु जब दो-तीन महीने का हो जाता है तब उसे पहली बार घर से बाहर निकाला जाता है तथा सूर्य भगवान के दर्शन करवाये जाते हैं।
  7. अन्नप्राशन – शिशु जब पांच-छः महिने का हो जाता है तब उसे प्रथम बार अन्न खिलाया जाता है। इसे देशाटन भी कहते है।
  8. चूडाकर्म / जडूला – शिशु जब दो तीन वर्ष का हो जाता है तब अपने कुल देवता या कुल देवी के मन्दिर में बच्चे का पहली बार मुंडन किया जाता है।
  9. कर्णबोध- शिशु जब चार-पाँच वर्ष का हो जाता है तब उसके कान भेदे जाते हैं।
  10. विद्यारंभ – बच्चा जब पाँच – छह वर्ष का हो जाता है तब उसे विद्यालय भेजा जाता है।
  11. उपनयन- इसे यज्ञोपवित या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। ब्राह्मण का बच्चा जब 8 वर्ष का, क्षत्रिय का 10 वर्ष का व वैश्य का 12 वर्ष का हो जाता है तब यह संस्कार दिया जाता है। उपनयन संस्कार का सबसे उत्तम दिन रक्षाबन्धन (श्रावण पूर्णिमा) है। इस संस्कार के बाद बच्चे को आश्रम भेजा जाता है।
    उपनयन संस्कार से बच्चे का आध्यात्मिक भाव जागृत किया जाता है।
  12. वेदारम्भ – यह संस्कार बच्चे को जब वेदों की शिक्षा के लिए गुरू के पास भेजा जाता है तब किया जाता है।
  13. केशान्त/गोदना – बच्चा जब किशोर अवस्था से यौवन अवस्था में आता है तब उसके पहली बार दाढ़ी-मूंछ कटवायी जाती है।
  14. समावर्तन- वेदों की शिक्षा पूर्ण होने पर किशोर जब अपने घर को लौटता है तब यह संस्कार दिया जाता है।
  15. पाणिग्रहण – व्यक्ति जब ब्रह्मचर्य आश्रम से ग्रहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। तब यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार शादी के समय किया जाता है।
  16. अंत्येष्टि – यह संस्कार मृत्यु के समय किया जाता है। यह व्यक्ति का अंतिम संस्कार है।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE जन्म सम्बन्धी रीति रिवाज

जलवा/कुआँ पूजन- प्रसूती महिला लड़के के जन्म के 20 दिन बाद गाँव के कुएं की पूजा करती है तथा पानी भरकर लाती है।

ढूंढ पूजा – पुत्र जन्म के बाद जब प्रथम होली आती है तब ननिहाल से लड़के के लिए खिलौने व वस्त्र भेजे जाते है।

सुआ – बच्चे जन्म पर उनके परिवार में लगभग 10 दिनों तक शुभ कार्य नहीं होता है।

घुंटी – बच्चे के जन्म पर उसके दादा या किसी बड़े बुजुर्ग द्वारा बच्चे को पहली बार कुछ पिलाया जाता है। माना जाता है जो व्यक्ति बच्चे को सर्वप्रथम पिलाता है बच्चा उसी स्वभाव का बनता है।

जामणा – बच्चा व उसकी माता के लिए ननिहाल से वस्त्र व उपहार आते हैं जिसे जामणा कहते है।

मासवारी/मासवां – प्रसूता द्वारा लगभग एक माह बाद शुभ दिन में स्नान करना।

जन्मोत्सव – जन्म पर घर में जच्चा गीत गाये जाते है पुत्र जन्म पर थाली व पुत्री के जन्म पर छाजला बजाया जाता है।

छठ पूजा – बच्चे के जन्म के 6 दिन बाद छठ पूजन होता है माना जाता है कि इस दिन विधाता बच्चे का भाग्य लिखता है।

आख्या – बच्चे के जन्म के 8 दिन बाद बहिन-बुआ घर के द्वार के आगे शगुन व सातिया/स्वास्तिक चिह्न बनाती है।

सील्लो पेट/ठाडौ पेट – पुत्रवती व सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद लेना।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE वैवाहिक रस्में

सावौ – विवाह का शुभ मुहुर्त निकाला जाता है।

लग्न पत्रिका- शादी का दिन निश्चित करना। इसे कुंकुम पत्री भी कहते हैं।

सगाई – इसमें एक रूपया व नारियल देकर रिश्ता पक्का किया जाता है। वागड़ क्षेत्र में (डूंगरपुर, बाँसवाड़ा) इसे सगपण कहते है।

कुण्डली मिलाना वर- वधु की जन्म पत्री को मिलाना।

टीका – इसमें वधुपक्ष शादी से पहले लड़के को कुछ राशि व उपहार देकर जाते हैं।

गोदभराई- इसमें वर पक्ष द्वारा वधु को आभूषण, फल व मिठाईयाँ दी जाती है।

चिकनी कोथली – इसमें वर-पक्ष द्वारा सगाई होने के बाद वधू पक्ष को तीज व गणगौर पर उपहार भेजे जाते है।

इकताई – इसमें वर-वधु के शादी के जोड़े का (कपड़े) दर्जी नाप लेता है।

बत्तीसी/भात नूतना वर- वधू की माता अपने भाई-भाभियों को शादी का न्यौता देने जाती है। इसे मायरा भी कहते है।

भात भरना – वर- वधू के ननिहाल से नाना-मामा आर्थिक सहयोग करते हैं। इसे मायरा भी कहते है।

भात मीठा करना- वर-वधू की माता अपने पीहर मिठाई लेकर जाती है।

बान/पाट – यह शादी के चार – पाँच दिन पहले होता है।

बिन्दोरी – लड़के को घोड़ी पर बैठाकर खुशी मनाई जाती है।

पीठी/हल्दायत – इसे हल्दहात भी कहते है इसमें हल्दी से उबटन बनाकर शादी होने वाले लड़का-लड़की के लगाया जाता है। पीठी मैदा, हल्दी व तिल्ली के तेल से बनाई जाती है। जिसे लड़का-लड़की के चार अचारिया – व चवाँचली स्त्री लगाती है।
नोट:- अचारिया उस स्त्री को कहते है जिसके माता-पिता जीवित होते हैं।

तेल चढ़ाना – बारात आने के बाद लड़की के तेल चढ़ाने की रस्म पूरी की जाती है। तेल चढ़ने के बाद लड़की की आधी शादी मानी जाती है।

मेल/बढ़ार – वर पक्ष द्वारा अपने परिवारजनों को भोजन करवाया जाता हैं।

रातीजगा – रात्रि में वर-वधु के घर देवी-देवताओं के गीत गाये जाते है।

रोड़ी पूजन – इसमें वर पक्ष की महिलाएँ गाँव के कूड़े-कचरे या थेपड़ी का करती है। यह सहनशीलता का प्रतीक है।

चाक पूजन- वर-वधू पक्ष की महिलाएँ कुम्हार के घर जाकर चाक का पूजन करते है तथा वहाँ से मिट्टी का कलश लाती है जिसे जंवाई उतारता है।

कांकण – डोर – वर-वधू को मांगलिक धागा बाँधा जाता है।

निकासी- बारात चढ़ते समय लड़के को घोड़ी पर बैठाकर खुशी मनाई जाती है।

मूठ भाराई – बारातियों के बीच वर के सामने रूपये का थाल रखा जाता है जिसमें से एक मुट्ठी वर भरता है। जिसे शगुन माना जाता है।

जेवड़ों- तोरण मारने के बाद सास द्वारा दुल्हे को आँचल से बांधना।

दही देना – तोरण मारने के बाद सास द्वारा दुल्हे के माथे पर दही तथा सरसों का टीका लगाना।

मण्डप – मण्डप बांस का बनाया जाता है जिसे लकड़ी के तोतों व बन्दरवार से सजाया जाता है। मण्डप के नीचे फेरे होते है।

पैसरो – विवाह के बाद वधू जब प्रथम बार ससुराल आती है तब सात थालियाँ कतार में रख दी जाती है जिन्हें दुल्हा कटार से इधर-उधर खिसकाता है तथा दूलहन इन्हें इकट्ठी करती है।

बरी – वर पक्ष द्वारा वधू के लिए जो वस्त्र ले जाये जाते हैं उसे बरी कहते है।

पड़ला – वर पक्ष द्वारा वधू के लिए आभूषण व शृंगार सामग्री ले जायी जाती है जिसे पड़ला कहते है।

सामेला/मधु पर्क – जब लड़के की बारात लड़की के गाँव पहुँच जाती है तब वधू पक्ष वर पक्ष व बारात का स्वागत करते है। इसे ठूमावा/आगवानी भी कहते है।

डुंडो/क्वारी जान की भात – वधु पक्ष द्वारा बारात को शादी से पहले नाश्ता करवाया जाता है।

दुकाव – वर जब घोड़ी पर बैठकर वधू के घर पहुँचता है वह दुकाव कहलाता है।

झाला – मिला की आरती वर द्वारा तौरण मारते समय वधू की माता द्वारा वर का द्वार स्वागत किया जाता है।

हथलेवा/पाणिग्रहण- इसमें लड़की का हाथ लड़के के हाथ में दिया जाता है।

गठजोड़ – इसमें लड़के-लड़की को एक कपड़े से बाँध दिया जाता है। जो वर के घर पहुंचने तक रहता है।

अभ्यारोहण – इसमें पंडित द्वारा वर-वधू को सात वचनों को निभाने के लिए कहा जाता है।

बिनोटा- यह वर व वधू के जूते-चप्पल होते हैं।

कामण- महिलाओं द्वारा गीत गाये जाते है जो दूल्हे को जादू-टोने से बचाते हैं।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE परणेत/फेरे-

परणेत/फेरे- वर-वधू अग्नि के चारों ओर फेरे लेते हैं। तीन फेरों मे वधू आगे तथा वर पीछे रहता है चौथे व अन्तिम फेरे में वर आगे रहता है। फेरों के बाद पत्नी वर के बाईं ओर बैठती है।
नोट:- फेरों से पहले वधू वर के दायीं ओर बैठती है।

पगधोई – फेरों के बाद वधू के माता-पिता वर के पाँव दूध से धोते हैं।

कन्यादान – फेरों के बाद वधू के पिता अपनी पुत्री का दान कर देता है।

पहरावणी/रंगबरी- इसमें वधू-पक्ष द्वारा बारात को उपहार या राशि दी जाती है।

ऊझणौ – वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को राशि व उपहार दिये जाते हैं जिसे ऊझणौ या दहेज कहते हैं।

मिलणी – वधु पक्ष द्वारा वर पक्ष के परिवारजनों को राशि दी जाती है जिसे मिलणी कहते हैं।

गौना/मुकलावा – जब नाबालिग लड़की की शादी कर दी जाती है तब उसे ससुराल नहीं भेजा जाता है। जब वह बालिग हो जाती है और ससुराल जाती है तब उसके साथ कुछ उपहार भेजे जाते हैं जिसे गौना कहते हैं।

माँ-माटा- लड़की की विदाई पर सास के लिए वस्त्र व मिठाई भेजी जाती है।

ननिहारी – लड़की को जब प्रथम बार उसके भाई या पिता द्वारा ससुराल से लाना ननिहारी कहलाता है। इसे ओलंदी भी कहते हैं।

कन्यावल – वधू के माता – पिता व भाई भाभियों द्वारा शादी के दिन उपवास रखना। इसे अखनाल भी कहते है।

जुआ जुई – इसमें वर पक्ष के यहाँ वर-वधू को जुआ-जुई का खेल खिलाया जाता है।

रियाण- पश्चिमी राजस्थान में अफीम से मेहमानों का स्वागत किया जाता है जिसे रियाण कहते है।

जात देना- शादी के बाद वर-वधू को देवी-देवताओं की पूजा करवाई जाती है।

सोटा सोटी- शादी के बाद वर-वधू नीम की छड़ियों से गोल-गोल घूमकर सोट-सोटी खेलते है। दुल्हन जब अपने देवर के साथ सोटा-सोटी खेलती
है तो उसे ‘साटकी’ कहते है।

मांडा झाँकना- दामाद का पहली बार ससुराल आना मांडा झाँकना कहलाता है।

बंदौला- वर-वधू परिवार जनों के यहाँ खाना खाने जाते है उसे बंदौला कहते है।

कोयलड़ी – विदाई के समय गाया जाना वाला गीत ।

ओलंदी – वधू के साथ पीहर से उसका छोटा भाई या कोई संबंधी आता है तो जिसे ओलंदी कहते है।

  1. मृत्यु की रस्में

अर्थी – मृत व्यक्ति को जिस शैया पर लेटाकर श्मशान तक ले जाया जाता है, उसे अर्थी कहते हैं।

बैकुंठी – मृत व्यक्ति को बैठाकर श्मशान तक ले जाया जाता है उसे बैकुंठी कहते हैं।

पिंड दान – जौ का बना पिंड जिसे मृत व्यक्ति को दिया जाता है।

पानीवाड़ा – मृत व्यक्ति की अंतिम यात्रा में जाने के लिए लोगों से कहा जाता है जिसे पानीवाड़ा कहते है।

दंडोत – मृत व्यक्ति को जब श्मशान तक ले जाता है तब उसके बेटे पोते बैकुंठी या अर्थी के आगे प्रणाम करते है जिसे दंडोत कहते हैं। बिखेर मृत व्यक्ति की शैया पर पैसे उछाले जाते हैं।

आघेटा- मृत व्यक्ति की शैया को रास्ते में किसी चौराहे पर पासे पल्टे जाते है।

लापा- मृत व्यक्ति के बेटे व पोते द्वारा शव को आग दी जाती हैं।

कपालक्रिया- मृत व्यक्ति के बेटे या पोते द्वारा मृत व्यक्ति का सिर फोड़कर उसमें घी डाला जाता है।

सातरवाड़ा- शव को जलाने के बाद सभी लोग स्नान आदि कर मृत व्यक्ति के परिवारजनों को सांत्वना देने आते हैं जिसे सातरवाड़ा कहते है। इसे हुक्का भरना भी कहते है।

मोकाण – मृत व्यक्ति के रिश्तेदार मृत व्यक्ति के परिवार जनों को सांत्वना देने आते है।

फूल चुनना – मृत व्यक्ति के परिवारजनों द्वारा तीसरे दिन हड्डियाँ, दंत, नाखून इकट्ठे किये जाते हैं जिन्हें फूल चुनना कहते हैं। इन फूलों को गंगाजी या किसी बहते पानी में बहा दिया जाता है जिसे फूल पढारना कहते हैं।

धारी संस्कार – यह मुख्यतः सहरिया जनजाति द्वारा किया जाता है। यह संस्कार मृत्यु के तीसरे दिन किया जाता है जिसमें एक कुण्डे के नीचे दीपक जलाया जाता है जहां किसी जानवर का पदचिन्ह बनता है। जिससे माना जाता है कि मृत व्यक्ति ने उस रूप में जन्म लिया है।

मौसर – यह मृत्यु के 12वें दिन किया जाता है जिसमें परिवारजनों को मृत्यु भोज दिया जाता है जो समाज में एक कुप्रथा है। इसे खर्च भी कहते हैं।

सोने की निसरनी चढ़ाना – चौथी पीढ़ी के पुत्र द्वारा।

औसर/जौसर – मृत्यु से पहले ही मृत्यु भोज देना औसर कहलाता है इसे जीवित जगड़ी भी कहते हैं।

नोट :- गरासियों में मृत्यु भोज को कोंधिया/मेक कहते हैं।

उठावणा – मृत्यु की बैठक समाप्त करना।

ओढ़ावणी- मृत व्यक्ति के रिश्तेदारों द्वारा मृत व्यक्ति के परिवारजनों के लिए वस्त्र आदि लेकर आना ओढ़ावणी कहलाती है जो समाज में कुप्रथा है।

पगड़ी बांधना – मृत व्यक्ति के सबसे बड़े पुत्र को पगड़ी बाँधकर परिवार की जिम्मेदारी सौंपी जाती है।

बरसी – मृत व्यक्ति के वार्षिक दिन को बरसी कहते हैं।

धौवाण – फूल पदारने के बाद दिया जाने वाला भोजन।

सापौ/सियावों/पार/छेड़ो/हर्जस – वृद्ध व्यक्ति की मृत्यु पर गाये जाने वाले गीत।

श्राद्ध – मृत्यु के दिन प्रतिवर्ष श्राद्ध मनाया जाता है।

मंडारी – साधु-संतों की मृत्यु पर दिया जाने वाला भोज।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE लोक विश्वास/मान्यता/शुभ-अशुभ

  • मंगलवार के दिन गोबर-मिट्टी से चौका नहीं करना चाहिए।
  • मंगलवार के दिन लाल वस्त्र पहनना शुभ होता है।
  • बुधवार के दिन शुभ कार्य प्रारम्भ करने चाहिए।
  • बुधवार के दिन बेटे की मां सिर नहीं धोती है।
  • बुधवार को यात्रा नहीं करनी चाहिए।
  • गुरुवार के दिन हजामत नहीं बनानी चाहिएं।
  • गुरुवार के दिन महिलाओं को सिर व वस्त्र नहीं धोने चाहिए।
  • शुक्रवार के दिन शुभ कार्य प्रारम्भ नहीं करने चाहिए।
  • शुक्रवार के दिन महिलाओं को यात्रा नहीं करनी चाहिए।
  • शनिवार के दिन बहु को पीहर नहीं भेजना चाहिए।
  • शनिवार के दिन नये वस्त्र, जूते आदि नहीं पहनने चाहिए।
  • शनिवार के दिन कार्य को प्रारम्भ व समाप्त करना शुभ होता है।
  • रविवार के दिन नमक, चना, तेल, आँवला नहीं खाने चाहिए।
  • रविवार के दिन दाँतून नहीं करनी चाहिए।
  • तारा टूटना अशुभ होता है। तारा टूटते समय नारियल नाम बोलते हैं।
  • नवरात्रें में चील, गरूड़ के दर्शन शुभ माने जाते हैं।
  • कुआँ खोदते समय बजरंग बली की पूजा की जाती है।
  • रात्रि में फोकरी पक्षी का बोलना अशुभ होता है।
  • घर में कबूतर का आना-जाना अशुभ होता है।
  • सीढ़ियों के नीचे पूजाघर अशुभ होता है।
  • सीढ़ियों की विषम संख्या (17, 19, 21, 23) अशुभ होती है।
  • बच्चे का बिस्तर पर पेशाब करना रिगतिये भैरव का दोष माना जाता है।
  • बच्चे को 12 बजे पालने में सुलाने पर उसका मुँह टेढ़ा हो जाता है।
  • रविवार के दिन छलनी सिर पर रखने से फौड़े-फुन्सियों होने का विश्वास है।
  • ग्रहण के समय गर्भवती महिला बाहर नहीं निकलती है और गर्भवती को नारियल देकर पालथी मार बिठाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इससे बच्चा विकलांग नहीं होता है।
  • यात्रा से पूर्व गुड़, दही खाना शुभ होता है।
  • यात्रा से पूर्व दूध नहीं पीना चाहिए।
  • यात्रा के समय रास्ते में गधे को बाईं ओर तथा जहरीले जंतुओं को दाहिनी तरफ टाला जाता है।
  • घर से बाहर निकलते समय सूखी लकड़ी, खाली घड़ा, बिल्ली का रास्ता काटना, सन्यासी, कान फड़फड़ाता कुत्ता, छींक आना, टोकना अशुभ होता है।
  • घर से बाहर निकलते समय जल से भरा घड़ा, मेहतर, बाईं तरफ तीतर शुभ होता है।
  • मंदिर के पीछे से जाना अशुभ होता है।

RAJASTHAN ME REETI RIWAJ OR PRTHAYE FAQs ?

प्रश्न – गरासियों में मृत्यु भोज को क्या कहा जाता है ?

उत्तर – गरासियों में मृत्यु भोज को कोंधिया/मेक कहते हैं।

प्रश्न – मृत व्यक्ति के बेटे व पोते द्वारा शव को आग देना कहलाता है ?

उत्तर – लापा।

प्रश्न – धारी संस्कार मुख्यतः किस जाती द्वारा किया जाता है ?

उत्तर – धारी संस्कार – यह मुख्यतः सहरिया जनजाति द्वारा किया जाता है।

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